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________________ २०६ जैनसत्त्वमीमांसा परसापेक्ष पर्याय देखी जाती है, ऐसी अवस्थामें उसके सम्यग्दर्शनरूप स्वभाव पर्याय कैसे बनी रहती हैं ? समाधान-उसके अनन्तानुबन्धी रागमूलक परसापेक्ष पर्याय तो होती ही नहीं। अप्रत्याख्यानादिभूलक परसापेक्ष पर्यायके होनेपर भी (उसके अपने आत्मामें उपादेयपनेका भाव सदा बना रहता है, इसलिए उसके सम्यग्दर्शनपर्यायके बने रहने में कोई बाधा नहीं आती। यह सामान्य नियम है। शंका-यदि यह बात है तो उपशम सम्यग्दृष्टि या क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्दर्शनपर्यायसे च्युत होकर नीचेके गुणस्थानोको कैसे प्राप्त हो जाते है ? समाधान-संसारी जीवोंके छठवें गुणस्थानतक यथासम्भव अप्रत्याख्यानादि प्रत्येक कषायकी जाति संक्लेश और विशुद्धिके भेदसे दो प्रकारकी स्वीकार की गई है। ये दोनो प्रकारके परिणाम एकेन्द्रियजीवोंसे लेकर छठवें गुणस्थानतक सभी जीवोके स्वभावसे क्रमशः होते रहते हैं। विस्रसापनेकी अपेक्षा इनमेंसे प्रत्येकका काल अन्तमुहूर्त है। प्रयोगकी अपेक्षा यथासम्भव इनका जघन्य काल एक समय भी होता है। अब समझिये कि किसी जीवके चतुर्थ गुणस्थानमे रहते हुए उस गुणस्थानके योग्य संक्लेश जातिकी कषाय इतनी वृद्धिको प्राप्त हो जाय कि जिसके बाद उसका पतन होना निश्चित है । तब सम्यग्दृष्टि जीव भी यथायोग्य नोचेके गुणस्थानोको प्राप्त हो जाता है। शंका-क्या कोई सम्यग्दृष्टि गुरुके सिवाय जिनागमके अभ्यासी मिथ्यादृष्टि गुरुके निमित्तसे भी सम्यग्दर्शनको उत्पन्न कर सकता है ? । समाधान नहीं, क्योकि जो स्वयं अन्तरंगमे विषय-कषायकी रुचिवाला बना हुआ है, जो निश्चय मोक्षमार्गके समान बाह्य वतादिको भी यथार्थ मोक्षमार्ग मानता है, जो लौकिक प्रवृत्तिमे रुचि लेता है, स्वयं यशःकामी ऐसे किसी भी नामधारी गुरु या व्यक्तिके उपदेशको निमित्तकर सम्यग्दर्शनरूप स्वभावपर्यायकी प्राप्ति होना सम्भव नहीं है। वास्तवमे वह मोक्षमार्गका गुरु ही नहीं है, क्योकि जिसके सम्यगदर्शनके अभावमें व्रत देखे जाते है उसे वास्तव में गुरु कहना या मानना बनता नहीं। शंका-व्यवहारसे उसे गुरु कहने में तो आपत्ति नहीं है ? समाधान-लोकानुरोधवश किसीको गुरु नामसे सम्बोधित करना
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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