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________________ षट्कारकमीमांसा जो आत्माको अर्थात् निज मात्माके स्वरूपको अबाव-स्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पांच भावरूप देखता है अर्थात् अनुभवत्ता है, हे मुमुक्षु ! तू इसे शुबनय जान ।। १४ ॥ इसकी आत्मख्यातिमें आचार्य अमृतचन्द्रदेव लिखते हैं या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चाल्मनोभूतिः स शुद्धनयः । सात्वनुभूतिरात्मवेत्यात्मक एवं प्रद्योतते । निश्चयसे अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्माकी जो अनुभूति होती है वह शुद्धनय है और वह अनुभूति आत्माही है, इसलिये एक मात्मा हो अनुभवरूप प्रकाशमान है। ___ यहाँ विषय और विषयोमें अनुभवनेवाला भी आत्मा है और जो अनुभवा गया वह भी आत्मा है । इस प्रकार इन दोनोंमें अभेद होनेसे स्वानुभूतिको ही आत्मा कहकर उसे शुद्धनय कहा गया है। इतना ही सम्यग्दर्शन है और आत्मा भी इतना ही है इसीको कलश काव्यमें स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव कहते हैं एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः, पूर्ण ज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयम्, तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु न. ॥ ६ ॥ जो शुद्धनय स्वरूप होनेसे एकरूप अपने स्वरूप में नियत है, अपने गुण-पर्यायोंमें निमग्न है तथा सब प्रकारसे या सब ओरसे पूर्ण ज्ञानधन है, ऐसे अन्य द्रव्योंसे पृथक् इस आत्माको देखना अर्थात् अनुभवना ही नियमसे सम्यग्दर्शन है, ऐसे अनुभवकी दशामें विचार कर देखा जाय तो जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है । इसलिये आचार्यदेव कामना करते हैं कि नवतत्त्वकी परिपाटीको छोड़कर यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो ॥ ६॥ इसी तथ्यको प्रांजल रूपसे स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव समयसारमें कहते हैं सम्मदंसण-गाणं एसो लहदि ति णवरि ववदेसं । सधणयपक्चरहिदो भणिदो जो सो समयसारो॥ १४ ॥ जो सर्व नय पक्षोंसे रहित है वह समयसार है ऐसा जिनदेवने कहा
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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