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________________ १९६ जैनतत्त्वमीमासा ख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायको निमित्तकर अबिरतिरूप परिणति देखी जाती है। स्वामित्वकी दृष्टिसे वह अपने शायकस्वभाव आत्माका ही स्वामी है और उसीका उपासक है। अन्य सबके साथ उसके स्वामी-सेवकभावका सर्वथा अभाव ही रहता है और इसी कारण सम्यग्दृष्टिको आगममे ज्ञान-वैराग्य शक्ति सम्पन्न स्वीकार किया गया है। वह पंचेन्द्रियोके विषयोंका भोग तो करता है फिर भी उनका भोक्ता नहीं होता। देखो, कैसी भावनाके कालमें यह जीव मिथ्याष्टि अर्थात् अनन्तससारी बना रहता है और उस भावनाका लोप होनेपर किस प्रकार सम्यग्दृष्टि हो जाता है इस तथ्यका निर्देश करते हुए आचार्यकुन्दकुन्ददेव समयसारमे लिखते हैं अहमेदं एदमहं अहमेदस्सम्हि अस्थि मम एदं । अण्णं ज परदब्व सचित्ताचित्तमिस्सं वा ॥२०॥ अस्थि मम पुज्य मेदं एदस्स अहं आसि पुव्वं हि । होहिदि पुणो ममेदं एदस्स अह पि होस्सामि ।।२१।। पर तु अमभूद आदवियप्पं करेदि संमूढो । भूदत्थ जाणंतो ण करेदि दु त असंमूढो ।।२२ जो जीव सचित्त, अचित्त और अन्य पदार्थों में मैं यह हूँ, यह मै हूँ, मैं इसका हूँ, यह मेरा है, यह मेरा पहले था, मै इसका पहले था, यह मेरा पुनः होगा और मै इसका पून होऊँगा इस जातिका अन्य पदार्थोंमे असत् विकल्प करता है वह नियमसे मूढ़ है, अज्ञानी है, बहिरात्मा है, मिध्यादृष्टि है, परद्रव्यप्रवृत्त है या परसमयमें स्थित है। किन्तु जो अन्य पदार्थोमे इस जातिका झठा विकल्प नहीं करता वह अमृढ़ है, ज्ञानी है, अन्तरात्मा है, सम्यग्दृष्टि है, स्वद्रव्यप्रवृत्त है या स्वसमयमें स्थित है ॥२० से २२।। इस प्रकार इस तथ्यपूर्ण कथनसे यह स्पष्ट भासित हो जाता है कि जो आत्मातिरिक्त अन्य जड़-चेतन पदार्थोंमे निजपनेके अभिप्रायपूर्वक प्रवृत्ति या विकल्प करता है या अनुकूल प्रतिकूल समझकर उसमें सुख-दुःख मानता है वह मिथ्याष्टि है । अतः उसीके साभिप्राय अविरति पाई जाती है। किन्तु जो सम्यग्दृष्टि है उसके श्रद्धाको अपेक्षा उक्त प्रकारकी अविरति या परद्रव्यप्रवृत्त प्रवृत्ति या उस प्रकारके विकल्पका सर्वथा अभाव है। जो उसके परपदार्थोंको निमित्तकर प्रवृत्ति या विकल्प देखा भो जाता है 'वह मै या मेरा' ऐसे आत्मपनेके अभिप्रायपूर्वक न होनेसे परमार्थसे
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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