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________________ १९४ जैनसत्त्वमीमांसा मोक्षमार्गको प्राप्ति होनेपर यह अनादि चतुर्गति भ्रमणसे त्रस्त हुआ संसारी जीव संसारसे छुटकर सिद्धपदका भागी होता है। इसीको सम्यरदर्शन और सम्यग्ज्ञान कहते हैं। सम्यक्चारित्र भी इसीका नाम है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव प्रवचनसार अध्याय १ में कहते हैं चा रत्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिहिट्ठो । मोह-क्रवाह विहीणो परिणामो अपणो हु समो॥७॥ इसका अर्थ करते हुए पण्डित श्री हेमराजजी पाडे लिखते हैं निश्चय कर अपनेमे अपने स्वरूपका आचरणरूप जो चारित्र वह धर्म अर्थात् वस्तु स्वभाव है। जो स्वभाव है वह धर्म है। इस कारण अपने स्वरूपके धारण करनेसे चारित्रका नाम धर्म कहा गया है। जो धर्म है वही समभाव है ऐसा श्रीवीत रागदेवने कहा है । वह साम्यभाव क्या है ? उद्वेगपनेसे रहित आत्माका परिणाम वही साग्यभाव है। ___ इसकी तत्त्वदीपिका टीकामें आचार्य अमृतचन्द्रदेव लिखते हैं म्वरूपे चरण चारित्रम्, स्वममयप्रवृत्तिरित्यर्थ । तदेव वस्तुस्वभावत्वाद् धर्मः । शुद्धचैतन्यप्रकाशनमित्यर्थ । तदेव च यथावस्थितात्मगुणत्वात् साम्यम् । साम्य तु दर्शन-चारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोह-क्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणाम । आत्माके शाश्वत स्वरूपमें रममाण होना चारित्र है। इसका तात्पर्य । है-अपने उपयोगरूप परिणामके द्वारा स्वसमयमें प्रवृत्त होना । वस्तु के स्वभावरूप होनेसे इसीका नाम धर्म है। इसका तात्पर्य है-शुद्ध चैतन्यका प्रकाशन ! और वही यथास्थित आत्माके गुणस्वरूप होनेसे साम्य कहलाता है। साम्यभाव वह है जो दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मके उदयको निमित्तकर होनेवाले मोह और क्षोभरूप विकारी परिणामोंसे अत्यन्त मुक्त जीवका परिणाम है ॥७॥ इसका आशय पण्डित श्री हेमराज पांडेजी ने इन शब्दोंमें व्यक्त किया है अभिप्राय यह है कि वीतराग चारित्र वस्तुका स्वभाव है। वीतरागचारित्र, निश्चयचारित्र, धर्म, सम परिणाम ये सब एकार्थवाचक हैं। और मोहकर्मसे जुदा निर्विकार जो आत्माका परिणाम स्थिररूप सुखरूप वही चारित्रका स्वरूप है ।। ७॥
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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