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________________ traraniमांसा समाधान --- वायु आदिमें अपनी क्रिया द्वारा निमित्त व्यवहार होता है और आकाशादिमें क्रियाके बिना निमित्त व्यवहार होता है । मात्र इस भेदको दिखलानेके लिये ही आचार्यांने इनमें भिन्न-भिन्न कारक व्यव हार किया है। वस्तुतः अन्य द्रव्यके कार्यका क्रियमाणपना गतिक्रिया करनेवाली वायु आदिमें नहीं है । विचार करके देखा जाय तो ऐसा व्यवहार सविकल्प क्रियावान् जीवमें ही घटित होता है, क्योंकि 'मैं इसका कार्य करता हूँ' यह मात्र इच्छापूर्वक होनेवाला विकल्पाश्रित व्यवहार है। जहाँ विकल्प नहीं वहाँ ऐसा व्यवहार भी नहीं होता । सम्यग्दृष्टिके 'मे इस कार्यको करता हूँ या कर सकता हूँ' ऐसी श्रद्धा निर्मूल हो जाती है । अतः आगम में अज्ञानभावके साथ ही इसकी व्याप्ति स्वीकार की गई है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए स्वयभूस्तोत्रमें आचार्य समन्तभद्र कहते हैं १९२ अनित्यमत्राणमक्रियाभिः प्रसक्तमिध्याध्यवसायदोषम् । इद जगज्जन्मजरान्तकार्त निरजना शान्तिमजीगमस्त्वम् ||१२|| यह जगत् अनित्य है. अशरण है, मैने यह किया - यह करता हूँयह करूँगा । इस प्रकार अक्रिया द्वारा मिथ्या अध्यवसाय ( विकल्प ) दोषको प्राप्त है। तथा जन्म, जरा और मरणसे पीड़ित है । हे जिनेन्द्र देव एक आप ही ऐसे हैं जो पूरी तरह निरञ्जन शान्तिको प्राप्त हुए हैं ||१२|| स्वामी समन्तभद्रके इस तथ्यपूर्ण वचनसे स्पष्ट है कि जबतक श्रद्धामूलक अज्ञानभाव है तभी तक ही इस जीवके परका कार्य कर सकनेका अहंकार है । ज्ञानभावमें ऐसा अहंकार स्वयं लुप्त हो जाता है । भगवान् अभिनन्दन जिनकी स्तुतिके प्रसंगसे भी इसी तथ्यको उन्होंने पुनः दुहराते हुए कहा है कि प्रत्येक संसारी प्राणी अपनेसे भिन्न परद्रव्यका कार्य करने में सर्वथा अनीश है फिर भी अहंक्रियासे पीड़ित होने के कारण ऐसा मानता है कि मै अपनेसे भिन्न परद्रव्यका कार्य कर सकता हूँ । यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्रदेवने भी समयसार कलश २०५ में इसी तथ्यको स्पष्ट शब्दोंमें दुहराते हुए यह स्वीकार किया है कि भेदज्ञानके पहले अज्ञानभावके कारण 'अन्य द्रव्यका कार्य करता है' यह मान्यता बनी रहती है। किन्तु भेदज्ञान होने पर ऐसी मान्यता स्वयं लुप्त हो जाती है । अतएव जो महानुभाव 'अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यका कार्य
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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