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________________ १७२ जैनतत्त्वमीमांसा इसी तथ्यको प्रवचनसारमें स्पष्ट करते हुए आचार्यदेव क्या कहते हैं, देखिये जे पज्जएसु गिरदा जीवा परसमयिग ति णिहिट्ठा । आदसहावम्मि विदा ते सगसमया मुणेदव्या ।।९४।। जो जीव पर्यायोंमें लीन हैं उन्हे परसमय कहा गया है और जो आत्मस्वभावमें लीन हैं उन्हें स्वसमय जानना चाहिये ।।९४॥ जीवों और पुद्गलोंके संयोगसे उत्पन्न हुई संसार सम्बन्धी ये मनुष्यादि जितनी असमान जातीय पर्यायें हैं उनमें मै मनुष्य हैं या देव है या यह मेरा शरीर है इत्यादि रूप जो अहंकार और ममकार परिणाम होता है वह कर्मोदयके साथ अन्य पदार्थोमें अनुरक्तिका ही परिणाम है और यह ऐसी अनुरवित है जिसके रहते हुए यह जीव अपने ज्ञान-दर्शन स्वभावको भूला रहता है । इसीसे प्रकृतमें पर्यायोंमें निरत जीवको परसमय कहा गया है । शेष कथन स्पष्ट ही हैं । परसमयके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए प्रवचनसारमे पुन कहा है दव्वं सहावसिद्ध सदिति जिणा तच्चदो समक्खाया। सिद्धं तध आगमदो णेच्छदि जो सो हि परसमओ ॥९८।। जिनेन्द्र देवने द्रव्यको तात्त्विकरूपसे स्वभावसिद्ध सत्स्वरूप कहा है। द्रव्य इस प्रकारका है यह आगमसे सिद्ध है । किन्तु जो ऐसा नही मानता वह परसमय है ।।९८॥ परमार्थसे किसी भी द्रव्यकी अन्य द्रव्यसे उत्पत्ति नहीं होती, क्योकि सभी द्रव्य स्वभावसिद्ध होनेसे अनादि-अनिधन है। कारण कि दूसरे साधनोंके द्वारा उनकी उत्पत्ति न होकर गुण-पर्यायात्मक सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभावको ही मूल साधन करके स्वयं ही सिद्ध होते हुए सिद्धिको प्राप्त हैं। तथा जो द्रव्योंके द्वारा आरम्भ होता है वह दूसरा द्रव्य न होकर अनित्य पर्याय है। द्रव्य तो मर्यादा रहित त्रिकालावच्छिन्न नित्य होता है । इस प्रकार जो स्वभावसिद्ध द्रव्य है वह सत् है। सत्ताके समवायसे द्रव्य हो ऐसा नहीं है । यह उसका स्वरूप है । अथवा जिसे हम द्रव्य कहते हैं वही सत्ता है । यह जिनेन्द्रदेवने कहा है। यतः आगम भी उनकी दिव्यध्वनिका शब्दरूप है। अत: जिनदेव की उक्ति और आगम एक ही है। इस प्रकार जो वस्तुव्यवस्था है उसे जो स्वीकार नहीं करता
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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