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________________ कर्तृ-कर्ममीमांसा १६९ होनेको पुण्य भाव कहा है और (पंचेन्द्रियोंके विषयोंमें) अशुभ भावके होनेको पापभाव कहा है। किन्तु जो परिणाम पुण्य-पाप रूपसे अन्य रूप नहीं होता अर्थात आत्मातिरिक्त लोकमें जितने भी पदार्थ हैं उनमें इष्टानिष्ट बुद्धि नहीं करता उसे ही परमागममें दुक्खके क्षयका कारण मोक्षस्वरूप कहा है || २-८९|| इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तवमें दो द्रव्यों में कर्ता कर्मपना तो नहीं है । जो आगममें सविकल्प क्रियावान् अज्ञानी जीवको घटादि कार्यों का कर्ता कहा गया है सो वह भी लौकिकजनोंके अनादिरूढ विकल्पको ध्यानमें रखकर ही कहा गया है । शेष द्रव्योंमें निमित्तपनेकी अपेक्षा कर्ता-कर्म व्यवहार न तो घटित ही होता है और न आगम ही ऐसे व्यवहारको प्रमुखतासे स्वीकार करता है । इतना अवश्य है कि जिन कार्यों में उक्त जीवोंकी अपेक्षा कर्ता व्यवहार किया गया है उनमेंसे किन्हीं - किन्हीं कार्योकी अपेक्षा पुद्गल स्कन्धोंमें करण व्यवहार अवश्य किया गया है। इसके लिए तत्त्वार्थवार्तिक अ० १, सू० १ का यह उल्लेख दृष्टव्य है- करण द्वधा विभक्ताविभक्त कर्तृ कभेदात् । कर्तुरन्यद् विभक्तकर्तृ कम् यथा परशुना छिनत्ति देवदत इति । कर्तुरनन्यदविभक्तकर्ता कम् । यथाग्निरिन्धनं दयत्यौष्ण्येन इति । 1 विभक्त कर्तृककरण और अविभक्त कर्तृककरणके भेदसे करण दो प्रकारका है । कर्तासे भिन्न करण विभक्तकर्तृक करण है । जैसे देवदत्त परशुसे छेदता है । कर्तासे अभिन्न अविभक्तकर्तृक करण है । जैसे अपने उष्ण परिणामसे अग्नि ईंधनको दहन करती है । यहाँ विकल्प और क्रिया परिणामसे युक्त देवदत्त कर्तारूपसे व्यवहृत हुआ है और छिदिक्रियाकी अपेक्षा फरसामें करण व्यवहार किया गया है । यह एक उदाहरण है। इससे पूर्वोक्त तथ्योंपर ही विशदरूपसे प्रकाश पड़ता है ! इतना अवश्य है कि आचार्य कुन्दकुन्दने एकेन्द्रिय जीव विशेषोंको जीव कहकर भी नामकर्मकी प्रकृतियाँ बतलाते हुए उनको जो करणरूप नामकर्मकी प्रकृतियोंसे रचित कहा है ( स० सा०, गा० ६५-६६ ) सो यहाँ पर एक तो स्वभावभूत जीवसे जीवविशेषोंको पृथक् करना उनका प्रयोजन रहा है । कारण कि औदयिक भावपरिणत जीवविशेषोंका अन्वयव्यतिरेक कर्मोदयके साथ है, स्वभावके साथ नहीं। दूसरे स्वभाव दृष्टिसे भेद व्यवहारको भी गौण कराया गया है। उन्होंने इस सरणिको
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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