SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ' क कममीमांसा धर्मादिक द्रव्य स्वतन्त्र हैं। उन्होंने कर्तव बर्मको सब द्रव्यों में साधारण इसी प्रयोजनसे कहा है। वे तत्वार्थवार्तिक अ० २०११२ में अपने इस तथ्यको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कर्तृत्वमपि साधारणम्, क्रियानिष्पत्ती सर्वेषा स्वातन्त्र्यात् । कर्तृत्व भी साधारण पारिणामिक भाव है, क्योंकि अपनी-अपनी प्रत्येक समयको परिस्पन्दलक्षण और परिणामलक्षण क्रियाकी उत्पत्तिमें यथासम्भव जीव और पुद्गल तथा प्रत्येक समयकी अपनी-अपनी परिणामलक्षण क्रिया की उत्पत्तिमें धर्मादि चार द्रव्य स्वतन्त्र हैं। प्रकरण पारिणामिक भावोंके प्रतिपादनका है उसी प्रसंगमें जो पारिणामिक भाव अन्य द्रव्योंमें भी उपलब्ध होते हैं उनकी यहाँ पर व्याख्या करते हुए उक्त वचन कहा गया है। यहाँ यह शंका उठाई गई है कि क्रिया परिणामसे युक्त जीवों और पुद्गलोंमें कर्तृत्व पारिणामिक भावका होना तो युक्त है, परन्तु धर्मादिक द्रव्योंमें वह कैसे बन सकता है ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि अस्ति' आदि क्रिया विषयक कतत्व उनमें भी पाया जाता है। सर्वार्थसिद्धि अ०२ सू०७ मे भी पारिणामिक भावोंमें अस्तित्व आदि धर्मोंका उक्त सूत्रमें आये हुए 'च' शब्दके द्वारा समुच्चय कर लिया गया है। वहाँ बतलाया है कि ये जीवके साथ और सबमे साधारण है, इसलिए उक्त सूत्रमें इनका संग्रह नही किया गया है। वह वचन इस प्रकार है अस्तित्वादय. पुनर्जीवाजीवविषयत्वात्साधारणा इति 'च' शब्देन पृथक् गृह्यन्ते । अस्तित्व आदिक तो जीव और अजीवको विषय करनेवाले होनेसे साधारण भाव हैं, इसलिए इनको 'च' शब्द द्वारा पृथक् ग्रहण किया है। यहाँ आये हुए 'आदि' पदसे कर्तृत्वका भी ग्रहण हो जाता है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमे भी जिन भावोको 'च' शब्द द्वारा समुच्चित किया गया है उनमें कतृत्व धर्मको भी परिगणित किया गया है। देखो, यहाँ पर आचार्य अकलंकदेवने 'क्रियानिष्यत्ती सर्तेषामपि स्वातन्त्र्यात्' अर्थात् अपनी-अपनी पर्यायकी उत्पत्ति करनेमें सभी द्रव्य स्वतन्त्र हैं यह कह कर प्रत्येक कार्यके होने में प्रत्येक द्रव्यको पर पदार्थो की सहायताको अपेक्षा नहीं हुआ करती है जिगागमके इस कथनको ही दो शब्दोंमें कह दिया है। इतना ही नहीं, इस उल्लेखसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि विभाव
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy