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________________ क-कर्ममीमांसा १५३ शंका--जीव और पुदगल द्रव्योंमें विभाव पर्याय और स्वभाव पर्याय ऐसे दो भेद होते हैं । यतः विभाव पर्यायोंमें जो अलग-अलग बाह्य निमित्त स्वीकार किये जाते हैं वे स्वभाव पर्यायोंमें नहीं स्वीकार किये गये, इसलिए पर्यायका विभावरूप होना इनका कार्य मानना चाहिए ? वे सब आत्माके शेय समाधान- देखो, जिसने भी बाह्य पदार्थ हैं, हैं । चूँ कि अपने अज्ञान और राग-द्वेषके कारण वह उनमें जब तक अहंकार और ममकार करता है, तब तक जिस आत्मा जि पदार्थोंकी ओर झुकाव होता है उस समय वे उस पर्यायके होनेमें यथासम्भव कारक निमित्त व्यवहारको प्राप्त हो जाते हैं। कर्म और जोकर दोनोंके लिए भी यह सिद्धान्त लागू होता है । यतः स्वभावपरिणत आत्मा अज्ञान और यथायोग्य राग-द्वेषसे रहित होता है, इसलिए ऐसे आत्माका इनकी ओर अज्ञान और राग-द्वेषरूप झुकाव भी दूर हो जाता है, अतः उनकी स्वभाव पर्यायमें ये बाह्य निमित्त भी नहीं होते हैं । कर्म तो आत्माके एक क्षेत्रावगाह से क्रमशः स्वयं पल्ला झुड़ा लेते हैं और नोकर्म ज्ञेय हो जाते हैं । कर्म भी स्वयं और कार्मण वर्गणारूप रहकर ज्ञेय हो जाते हैं । यह कहे तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि इस अपेक्षा उनकी कर्म और नोकर्म संज्ञा भी नहीं रहती । उनकी ज्ञेय संज्ञा हो जाती है । मात्र वे ज्ञानके ज्ञेय हो जाते हैं । जीवके विभाव-स्वभाव पर्यायरूप क्रमसे होनेका और इन कर्म और नोकर्मका कर्म और नोकर्मरूप कहलाने और ज्ञेयरूप होनेके क्रमको समझनेके लिए द्रव्यानुयोगके साथ करणानुयोग और चरणानुयोगका सूक्ष्म अध्ययन भी आवश्यक है। 1 अब रहा पुद्गल द्रव्य सो जोब द्रव्यके स्वभावसे उसका स्वभाव ही दूसरे प्रकारका है । परमाणु शुद्ध होता है, फिर भी वह बँधता है । उसका विभावरूप परिणमन उसके स्पर्श गुणके कारण ही होता है यह बात प्रत्येक तत्त्वजिज्ञासु जानता है। किन्तु जीव ऐसे स्वभाववाला नहीं होता । जीव यदि बंधा है और विभावरूप परिणम रहा है तो अपने अज्ञानादि दोषोंके कारण ही वैसा हो रहा है। यही कारण है कि अध्यात्ममें मुख्यत्तया अज्ञानादि दोषोंको दूर करनेके उपायभूत अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वरूप आत्माके अनुरूप अनुगमन करनेका उपदेश दिया गया है । इसके लिए देखो समसार गाथा ७२-७४ आत्मख्याति टीका । शंका- नोकर्म तो प्रकट हैं, उनसे निवृत्त होना सहज है। कर्म सूक्ष्म दृष्टिगोचर नहीं होते, उनसे निवृत्त होना कैसे सम्भव है ?
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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