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________________ कर्तृकर्ममीमांसा १४५ 'जब तक उसे कारण साकल्यका ज्ञान न होगा तब तक वह घटादि काय समवायी, असमवायी और निमित्तकारणों का संयोजन कैसे करेगा । उसे प्रत्येक प्राणीके अदृष्टका भी विचार करना होगा । बह चिकीर्षा (करनेकी इच्छा) से रहित भी नहीं हो सकता, क्योंकि कारकसाकल्यका ज्ञान होने पर भी जब तक उसे घटादि कार्य करनेकी इच्छा नहीं होगी तब तक चिकीर्षाके विना वह मिट्टी आदिसे घटादि कार्योको कैसे उत्पन्न करेगा । वह कार्य करनेके प्रयत्नसे रहित भी नहीं हो सकता, क्योंकि उसे कारक साकल्यका ज्ञान और घटादि कार्य करनेकी इच्छा होने पर भी जब तक वह घटादि कार्योंके बनानेके उपक्रममें नहीं लगेगा तब तक मिट्टी आदिसे समवेत घटादि कार्योकी उत्पत्ति कैसे कर सकेगा । इसलिए जो कारकसाकल्यके ज्ञानसे सम्पन्न है, जिसे मिट्टी आदिसे समवेत घट आदि कार्य करनेकी इच्छा है और जो उक्त प्रकारसे कार्य करनेके प्रयत्न में तत्पर है ऐसा ही चेतन व्यक्ति किसी भी कार्यका कर्ता हो सकता है । जो प्रत्येक कार्यका समवायी कारण है वह स्वरूपसे अपरिणामी है । जो भी कार्य होता है वह समवायी कारणका स्वरूप न होकर समवाय सम्बन्धसे उसका कहा जाता है। इसलिए इस दर्शनकी मान्यता है कि जो कारक साकल्यका ज्ञान रखता है, जो कार्य करनेकी इच्छासे युक्त है और जो कार्य करनेके प्रयत्नमें लगा हुआ है ऐसा अन्य सचेतन व्यक्ति ही उस कार्यका कर्ता हो सकता है। 1 यद्यपि सचेतन अन्य सविकल्प मनुष्यादिमें भी ये तीनों विशेषताएँ देखी जाती हैं, परन्तु उन्हें कारक साकल्यका पूरा ज्ञान न होनेसे वे कर्ता नही हो सकते । विशेषरूपसे देखा जाय तो उन्हें न तो प्रत्येक प्राणीके अष्टका ही ज्ञान होता है और न पृथिवी आदिके परमाणु आदिका ही ज्ञान होता है । ऐसी अवस्थामें वे सब कार्योको कैसे कर सकेंगे अर्थात् नहीं कर सकेंगे। अत: इस दर्शनमें ज्ञानादि उक विशेषताओंके साथ कर्तारूपसे अलग से एक अनादि ईश्वरको स्वीकार किया गया है । एक बात और है जो यहां विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य है । यद्यपि इस तथ्यका निर्देश हम इसके पहले ही कर माये हैं, परन्तु प्रयोजनवश यहाँ हम उसका पुनः उल्लेख कर रहे हैं। वह यह कि यह दर्शन किसी भी वस्तुको स्वरूपसे परिणामी नहीं मानता, अतः उसके स्वयं कार्यरूप परिणत न होनेके कारण ईश्वर अपने प्रयत्न या प्रेरणा द्वारा प्रत्येक वस्तुसे समवेत कार्योंको उत्पन्न करता रहता है । यतः वे सब कार्य ईश्वरके प्रयत्नपूर्वक होते हैं, अतः यह सब कार्योंका स्वतन्त्ररूपसे कर्ता १०
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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