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________________ उभयनिमित्त-मीमांसा ११७ प्रकारके परिग्रहकी मर्यादा करके शेषका त्याग ही क्यों करें और बाह्य परिग्रहका पूर्ण त्याग करके तथा इसके साथ उसमें मूर्च्छा न रखकर साधु ही क्यों बने । फिर तो सम्पूर्ण परिग्रहके सद्भावमें साधु कहलाने में आपत्ति ही क्यों मानी जाय । पिंछी, कमण्डलु और शास्त्र भी परिग्रह हैं इसमें सन्देह नहीं । फिर भी चरणानुयोग परमागममें प्रयोजन विशेषको ध्यान में रखकर उनके ग्रहणका उपदेश है । उसमें भी शास्त्र के लिये यह नियम है कि स्वाध्यायकी दृष्टि से १-२ शास्त्रोंको ही साधु स्वीकार करे और उनका स्वाध्याय पूरा होनेपर उनको भी जहाँ स्वध्याय पूरा हो जाय वहीं विसर्जित कर दे । किन्तु इन तीनको छोड़कर ऐसा कोई कारण तो नहीं दिखलाई देता कि वह उन्हें स्वीकार करे । इस विवेचनसे स्पष्ट है कि जितने भी बाह्य निमित्त आगममे कहे गये है वे अन्य द्रव्यके कार्यो के बाह्य निमित्त होकर भी परमार्थसे उनके कार्यों के अणुमात्र भी कर्ता नही होते । मात्र उनमे लौकिक दृष्टिको ध्यान में रखकर अन्वयव्यतिरेकके आधारपर अहं कर्ता इस प्रत्ययसे ग्रसित और कार्योंके लिये प्रयत्नशील अज्ञानी जीवोंमे ही कर्तापनेका व्यवहार किया जाता अन्य देखो, यहाँ शुभ राग और निश्चय रत्नत्रय एक आत्मामे अपनेअपने कारणोंसे एक साथ जन्म लेते है, पर जहाँ शुभ भावको ही वोतराग भावका कर्ता स्वीकार नहीं किया गया वहाँ अत्यन्त भिन्न बहिर्द्रव्य अन्यके कार्यका कर्ता कैसे हो सकता है । इस विषयको स्पष्टरूपसे समझने के लिए समयसार मोक्ष अधिकारकी ये सूत्रगाथाऐं दृष्टव्य है धाच सहाव वियाणिओ अप्पणी सहाव च । धे जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खण कुणइ ॥ २९३ ॥ जीवो कम्मं य तहा छिज्जति सलक्खहेहि णियएहि । पण्णाछेदणएण उ छिण्णा गाणन्तमावण्णा ||२९४ ॥ बन्ध (राग) के स्वभावको और आत्माके स्वभावको जानकर बन्धों ( रागादि भावो) से जो विरक्त होता है वह कर्म ( रागादि भावों) से विरक्त हो जाता है ।। २९३ || जीव और रागादिरूप बन्ध अपने-अपने स्वलक्षणोंके द्वारा इस प्रकार छेदे जाते है जिससे वे प्रज्ञारूपी छैनीसे छिन्न होकर नानापनेको प्राप्त हो जाते हैं ||३९४ ॥
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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