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________________ उभयनिमित्त-मीमांसा ११५ प्रकार होता है ? जब कि वह स्वयं अपनी ही क्रियामें व्याप्त रहता है तो वह अन्य द्रव्यकी क्रिया जब कर ही नहीं सकता तब वह अन्य द्रव्यके कार्य में वास्तव में सहायक ही कैसे हो सकता है, अर्थात् नही हो सकता यही निश्चित होता है । और यदि अपनी उक्त दोनों प्रकारकी क्रियाओंको छोड़कर अन्य द्रव्यके कार्य में व्याप्त रहता है तो वह स्वयं अपरिणामी हो जाता है । इन दोनों प्रकारकी आपत्तियोंसे बचनेका एकमात्र यही उपाय है और वह यह कि परमार्थसे न तो एक द्रव्य अपने कार्यको छोड़कर अन्य द्रव्य कार्यमें निमित्त ही होता है और न ही वह उस कार्यके होने में परमार्थसे कुछ सहायता ही करता है। मात्र अन्वयव्यतिरेकके आधार पर काल प्रत्यासत्तिवश यह व्यवहार किया जाता है कि इसने इसका कार्य किया या यह इसके कार्यमें सहायक है । संच पूछा जाय तो निमित्तवाद जहाँ अन्य निमित्तवादी दर्शनोका अन्तरात्मा है वहाँ जैनदर्शनमें वह बाह्य कलेवरमात्र है । इसी तथ्यको आचार्य पूज्यपाद ने भी सर्वार्थसिद्धिमें व्रतोंको लक्ष्य कर स्पष्ट शब्दों में स्वोकार किया है । वे लिखते हैं तत्र अहिंसाव्रतमादी क्रियते, प्रधानत्वात् । सत्यादीनि हि तत्परिपालनार्थानि सस्यस्य वृत्तिपरिक्षेपवत् । अ० ६, सू० १ । वहाँ पाँच व्रतों अहिंसा व्रतको आदिमें रखा है, क्योंकि वह सब व्रतों में मुख्य है । धान्यके खेतके लिए जैसे उसके चारों ओर बाड़ी होती है उसी प्रकार सत्यादिक सभी व्रत अहिंसाके परिपालनके लिए हैं । देखो, यहाँ अहिंसा व्रतको खेतमें उपजी धान्यकी उपमा दी है और सत्यादिक चार व्रतोंको व्यवहारसे उसकी सम्हालके लिए बाडी बतलाया है । यह तो प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमी जानता है कि प्रकृतमें अहिंसा और सत्यादिक दोनों आत्माके शुभ परिणाम हैं । इस प्रकार एक आत्मपने की अपेक्षा दोनोंमें अमेद होने पर भी आचार्यने भेद विवक्षामें अहिंसा को कार्य और सत्यादिकको उसके बने रहनेका व्यवहार हेतु ( निमित्त) कहा है । इसी प्रकार संवर स्वरूप व्रतोंमें और प्रशस्त राग स्वरूप व्रतोंमें क्या अन्तर है इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं - व्रतेषु हि कृतपरिकर्मा साधुः सुखेन संवरं करोतीति ततः पृथक्त्वेन उपदेशः क्रियते । सर्वा० अ० ६, सू० १ ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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