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________________ १०२ जनतत्त्वमीमांसा कर्तव्य कर्म ही मानने चाहिये । उन्हे आगममें व्यवहार मोक्षमार्गरूपसे स्वीकार करनेका प्रयोजन भी यही है ? समाधान - प्रश्न मार्मिक है । उसका समाधान यह है कि प्रकृतमें जो बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक कार्योंका विभाजन किया गया है वह 'यह मेरा कार्य और मैं इसका करनेवाला, इस कार्यके किये बिना मेरा तरणोपयाय नहीं, ऐसे अभिप्रायपूर्वक जो कार्य होते हैं वे बुद्धिपूर्वक कार्य कहलाते हैं तथा इनके सिवाय अन्य सब कार्य अबुद्धिपूर्वक कहलाते हैं | आचार्य विद्यानन्दने अबुद्धिपूर्वक कार्यका अर्थ अतर्कतोपस्थित किया है सो इससे भी उक्त कथनकी ही पुष्ठि होती है, क्योंकि प्रकृतमें राग, द्वेष और मोहपूर्वक की गई प्रवृत्ति या अभिप्राय मोक्षप्राप्तिके लिये इष्ट नहीं है । इस दृष्टिसे शुभोपयोग भी अनुपादेय माना गया है । उसका | विकल्पकी भूमिका कहो या प्राक् पदवी कहो उस समय होना और बात है और यह मोक्ष प्राप्तिके लिए परमार्थसे करणीय है ऐसे अभिप्रायपूर्वक उसे उपादेय मानना और बात है। ज्ञानीका अभिप्राय तो एकमात्र अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावमें लीनता प्राप्त करनेका ही रहता है । और इसीलिये आचार्य अमृतचन्द्रदेवने 'स्वरूपमे रमना - चारित्र है' चारित्रका यह लक्षण किया है । यतः चारित्र सम्यग्दर्शनका अविनाभावी है, इसीलिये आगममें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनमेंसे प्रत्येकके लक्षणके साथ स्वरूप लाभको अविनाभावी स्वीकार किया गया है । स्वरूप लाभ न हो और सम्यग्दर्शन आदि परिणाम हो जायँ ऐसा नही है । शुभाचारको चरणानुयोग शास्त्र स्वयं मोक्षप्राप्ति में बाह्य-निमित्तरूपसे स्वीकार करता है । इसलिये यही तथ्य फलित होता है कि ज्ञानीकी दृष्टि सर्वदा सविकल्प अवस्थामें भी आत्मस्वरूप पर ही रहती है । वह स्वयं शुभाचारको संसारका प्रयोजक होनेसे अपना अपराध ही मानता रहता है, क्योंकि ऐसी दृष्टिके बिना उसका, ज्ञानी कहो, सम्यग्दृष्टि कहो, अध्यात्मवृत्त कहो, अन्तरात्मा कहो या स्वसमय कहो' होना नहीं बन सकता । इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकमें साभिप्राय जितने भी कार्य होते हैं उनकी प्रायोगिक संज्ञा है, शेष सब कार्य वैत्रसिक कहलाते हैं । २. उभयरूपसे निमित्त शब्दका प्रयोग साधारणतः निमित्त शब्द कारण, उपाधि, साधन या हेतुवाची
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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