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________________ आत्मनिवेदन जा सकता है कि उन्होंने अपने लेखनमें यह दृष्टिकोण व्यापक रूपसे अपना लिया है कि यदि विवक्षित कार्यके पूर्व प्रत्येक वस्तु उसके अव्यवहित पूर्व पर्यायको स्थितिमें पहुँच भी जाय फिर भी उस कार्यके अनुकूल बाह्य सामग्री उपस्थित न हो तो विवक्षित कार्य अपने नियत उपादानके अनुसार न हो कर बाह्य सामग्रीके आधार पर ही होगा। इससे मालूम पड़ता है कि आगमके अनुसार कार्य-कारण परम्परामें जो क्रममावी अविनाभावको स्वीकार किया गया है और इसी आधार पर आगममें जो निश्चय उपादानका सुनिश्चित लक्षण उपलब्ध होता है, वह सब इन महाशयोको मान्य नहीं है। साथ ही व्यवहाग्नय और उसके उत्तर भेदोंके जो लक्षण आगममें दृष्टिगोचर होते हैं वे भी उन्हे मान्य नहीं है, अन्यथा असद्भुत व्यवहारनय और उसके उत्तर भेदोंके आगममें जो लक्षण या स्वरूप दृष्टिगोचर होते हैं उन्हें माध्यम बनाकर ही वे बाह्य निमित्त पक्षको उपस्थित करते, वे अपने लेखन द्वारा अध्यात्म पक्ष पर किमी प्रकारकी आंच न आने देते और न ही नयप्ररूपणाको प्रयोजनके बिना विविध विकल्पोंके चक्कर में ही डालते। उस ओरसे एक इस नये मतको भी प्रस्तुत किया गया है कि केवलज्ञानके अनुसार तो प्रत्येक कार्य अपने-अपने स्वकालके प्राप्त होनेपर नियत क्रमसे ही होता है तथा उसकी बाह्याभ्यन्तर साधन सामग्री भी अपनेअपने कार्यके अनुसार नियत क्रमसे ही प्राप्त होती है। किन्तु श्रुतज्ञानके अनुसार ऐसा नहीं है। हमें नहीं मालूम कि उनके इस मतके समर्थनमें उनके इस मतका भीतरसे समर्थन करनेवाले और कितने विद्वान हैं। देखो, सम्यग्ज्ञानका कार्य मात्र जानना है इसलिये किस समय किन नियत बाह्याभ्यन्तर कारणोंके आधारपर कोन कार्य होता है यह जानना उसका कार्य है। यह कार्य इन कारणोंसे हो, इन कारणोंसे नहीं हो यह व्यवस्था देना उसका कार्य नहीं है। हम पूछते हैं कि जब कार्य-कारण व्यवस्थामें सर्वज्ञ कथित आगमके अनुसार अविभावको मुख्यता है तब प्रत्येक कार्यके अव्यवहित पूर्व पर्यायकी स्थितिमें प्रत्येक द्रव्यके पहुंचने पर तदनन्तर समयमें तदनुसार प्रत्येक कार्य क्यों नहीं होगा, अवश्य होगा। क्या केवलज्ञानके अनुसार यह कहा जायगा कि अपने-अपने स्वकालके प्राप्त होने पर ही प्रत्येक कार्य होगा और उसके विरोधमें श्रुतज्ञान कहेगा कि नहीं भाई, ऐसा कोई नियम नहीं है । क्या यह जैनतत्त्वको विडम्बना नहीं है। जैनतत्त्वमीमांसाके लेखनमें अल्प क्षयोपशमके कारण यदि कोई त्रुटि
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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