SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ : जैन तर्कशास्त्र में भनुमान-विचार अन्तमें निष्कर्ष निकालते हुए युक्तिदीपिकाकार' कहते हैं कि इसीसे हमने जो वोतानुमानके दशावयव कहे वे सर्वथा उचित हैं। आचार्य (ईश्वरकृष्ण) उनके प्रयोगको न्याय-संगत मानते हैं।' इससे अवगत होता है कि दशावयवकी मान्यता युक्तिदीपिकाकारकी रही है। यह भी सम्भव है कि ईश्वरकृष्ण या उनसे पूर्व किसी सांख्य विद्वान्ने दशावयवोंको माना हो और युक्तिदीपिकाकारने उनका समर्थन किया हो। जैन विद्वान् भद्रबाहुने भी दशावयवोंका उल्लेख किया है । जैसा कि पूर्व में लिखा गया है । किन्तु उनके वे दशावयव उपर्युक्त दशावयवोंसे कुछ भिन्न हैं । प्रशस्तपादने" पाँच अवयव माने हैं। पर उनके अवयवनामों और न्यायसूत्रकारके अवयवनामोंमें कुछ अन्तर है। प्रतिज्ञाके स्थानमें तो प्रतिज्ञा नाम ही है। किन्तु हेतुके लिए अपदेश, दृष्टान्तके लिए निदर्शन, उपनयके स्थानमें अनुसन्धान और निगमनकी जगह प्रत्याम्नाय नाम दिये हैं । यहाँ प्रशस्तपादकी" एक विशेषता उल्लेखनीय है। न्यायसूत्रकारने जहाँ प्रतिज्ञाका लक्षण 'साध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा' यह किया है वहाँ प्रशस्तपादने 'अनुमयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा' यह कहकर उसमें 'अविरोधी' पदके द्वारा प्रत्यक्ष-धिरुद्ध आदि पाँच विरुद्धसाध्यों ( साध्यामासों )का भी निरास किया है। न्यायप्रवेशकारने भी प्रशस्तपादका अनुसरण करते हुए स्वकीय पक्षलक्षणमें 'अविरोधि' जैसा हो 'प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध' विशेषण दिया है और उसके द्वारा प्रत्यक्षविरुद्धादि साध्याभासोंका परिहार किया है। न्यायप्रवेश और माठरवृत्तिमें पक्ष, हेतु और दृष्टान्त ये तीन अवयव स्वीकार १. 'तस्मात् सूक्तं दशावयवो वीतः। तस्य पुरस्तात् प्रयोगं न्याय्यमाचायां मन्यन्ते।' -यु० दी० का० ६, पृष्ठ ५१ । 'अवयवाः पुनर्जिशाप्तादयः प्रतिशादयश्च। तत्र जिज्ञासादयो व्याख्यांगम् , प्रतिज्ञादयः परप्रत्यायनांगम् । तानुत्तरत्र वक्ष्यामः ।' - वही० का० १ की भूमिका पृष्ठ ३ । २. युक्तिदीपिकाकारने इसी बातको आचार्य ( ईश्वरकृष्ण ) को कारिकाओं-१, १५, १६, ३५ और ५७ के प्रतीकों द्वारा समर्थित किया है। -यु. दा. का० १ को भूमिका पृष्ठ ३ । ३. दशवै० नि० गा० ४९-१३७।। ४. अवयवाः पुनः प्रतिशापदेशनिदर्शनानुसन्धानप्रत्याम्नाया: । -प्रश० भा० पृ० ११४ । ५. वही, पृष्ठ ११४, ११५ । ६. शयप्र० पृ० १। ७. वही, पृ० १,२ । ८. माठरवृ० का० ५।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy