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________________ द्वितीय परिच्छेद इतर परम्पराओं में अनुमानाभास-विचार जैन तक ग्रन्थोंमें चिन्तित अनुमान-दोषोंके विमर्श के साथ यदि यहाँ अन्य परम्पराओंके तर्क ग्रन्थोंमे प्रतिपादित अनुमानाभासको चर्चा न की जाय तो एक न्यूनता होगी और अनुमानाभासको आवश्यक जानकारी (तुलनात्मक अध्ययन)से वंचित रहेंगे। अतः वैशेषिक न्याय और बौद्ध परम्पराके न्यायग्रन्थों में बहुचर्चित अनुमानाभासपर भी यहां विचार किया जाता है । इससे जहाँ अन्य ताकिकोंकी अनुमानाभाससम्बन्धी उपलब्धियोंका अवगम होगा वहाँ जैन ताकिकोंको भी अनुमानाभासचिन्तनविषयक अनेक विशेषताएँ ज्ञात हो सकेंगी। वैशेषिक परम्परा : कणादने" अनुमानका व्यवहार अनुमानशब्दसे न करके 'लैङ्गिक' शब्दसे किया है और उन लिङ्गोंको गिनाया है जिनसे वह उत्पन्न होता है। इसका तात्पर्य है कि उनके मतानुसार 'लङ्गिक' ( अनुमान ) को सामग्री मुख्यतया लिङ्ग है तथा लिङ्गाभास ( अलिङ्ग ) उसका अनरोधक । सम्भवतः इसीसे कणादने लिङ्गके विचार के साथ लिङ्गाभासका भी ऊहापोह किया है। पर प्रतिज्ञा और दृष्टान्त अनुमानके अङ्ग है, इसका उन्होंने निर्देश नहीं किया और इसी कारण प्रतिज्ञाभास तथा दृष्टान्ताभासका भी कथन नहीं किया । चूँकि लिङ्गको उन्होंने त्रिरूप प्रतिपादन किया है, अत: उन रूपोंके अभावमे लिङ्गाभासको तीन प्रकारका बतलाया है-( १ ) अप्रसिद्ध, ( २ ) असत् और ( ३ ) सन्दिग्ध । कणादके भाष्यकार प्रशस्तपादने उक्त तीन लिङ्गाभासोंके अतिरिक्त अनघ्यवसित नामके चौथे लिङ्गाभासका भी उल्लेख किया है। किन्तु बादको उसे १. अस्येदं कार्य कारणं संयोगि विरोधि समवायि चेति लैङ्गिकम् । -वैशे० सू० ६।२।१। २. अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्चानपदेशः । -वैशे० सू० ३।१।१५ । ३. विपरोतमतो यत् स्यादकेन द्वितयेन था। बिरुद्धासिद्धसन्दिग्धमलिङ्गं काश्यपीऽब्रवीत् ॥ -वही, प्रश० भा० पृ० १०० पर उद्धृत पद्य तथा वही, ३।१।१५ । ४. प्रश० मा० पृ० ११६, १२० ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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