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________________ २४६ : जैनतर्कशास्त्र में अनुमान-विचार हो विलोप हो जाएगा। इसीप्रकार अनुमानबाधित स्थल में सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि पक्ष के दोषको पक्षाभास ही मानना युक्त है, हेत्वाभास नहीं । इनका एक वैशिष्ठ्य और है । इन्होंने' उचितानुपूर्वीके अभावमें उपनयाभास और निगमनाभासका भी निर्देश किया है। ३. यशोविजय-यशोविजयने पृथक् रूपसे पक्षाभासों और दृष्टान्ताभासोंका कथन नहीं किया, साध्यके लक्षण और दृष्टान्तप्रयोगके समर्थन में उनका प्रतिपादनाभिप्राय प्रकट होता है । हेत्वाभासोंका उन्होंने स्पष्ट निरूपण किया है । और सिद्धसेन तथा देवसूरिकी तरह उन्हें त्रिविध बतलाया है । अकिंचित्करको चतुर्थ हेत्वाभास मानने के धर्मभूषणके मन्तव्यका समालोचन भी किथा हैं । उनका कहना है कि सिद्धसाधन और बाधितविषय क्रमशः प्रतोत और निराकृत पक्षाभासभेदोंसे भिन्न नहीं हैं। और यह आवश्यक नहीं है कि जहां पक्षदोष हो वहाँ हेतुदोष भी अवश्य हो । अन्यथा वहाँ दृष्टान्तादि दोष भी अवश्य मानना पड़ेंगे। किन्तु हम पहले कह आये हैं कि जहां साध्य सिद्ध है और उसे सिद्ध करने के लिए कोई हेतुका प्रयोग करता है तो उसका वह हेतु पक्षदोषके अलावा अकिंचित्कर कहा जाएगा। यह नहीं कि पक्षदोष होनेपर हेतुदोष न होवह हो सकता है। जब विनेयोंको व्युत्पादन कराना आवश्यक है तो उनके लिए लक्षणव्युत्पादनशास्त्रमें अकिंचित्कर दोपका ज्ञान कराना ही चाहिए। हाँ, व्युत्पन्नोंके प्रयोगकालमें उसकी आवश्यकता नहीं है। वहीं तो पक्षदोषोंका प्रदर्शन ही पर्याप्त है-उसोसे व्युत्पन्नप्रयोग दषित हो जाता है। चारुकीति' भी यही कहते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन तर्क ग्रन्थों में जहाँ अनुमान और उसके परिकर ( अवयवादि ) पर चिन्तन उपलब्ध है वहाँ उसके दोषोंपर भी विचार किया गया है। १. प्रमेयरत्ना०, ६।४६, पृ० २०० । २. जैनत० मा० पृ० १३. १६ । ३. वही, पृ० १८। ४. अकिंचित्कराख्यश्चतुर्थोऽपि हेत्वाभासभेदो धर्मभषणेनोदाहृतो न श्रद्धेयः । सिद्धसाधनो बाधितविषयश्चेति द्विविधस्याप्यप्रयोजकाह वयस्य तस्य प्रतीत-निराकृताख्यपक्षाभासभेदानतिरिवतत्वात् । न च यत्र पक्षदोषस्तत्रावश्यं हेतुदोषोऽपि वाच्यः, दृष्टान्तादिदोषस्याप्यवश्यं वाच्यत्वापत्तेः। -जैनत० मा० पृ० १६ । ५. लक्षणव्युत्पादनशाल एव असावकिंचित्करलक्षणो दोषो विनेयव्युत्पत्यर्य ध्युत्पाद्यते, न तु व्युत्पन्नानां प्रयोगकाले। -प्रमेयरत्नालं. ६३९ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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