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________________ २४० : जैन तर्कशाखमें अनुमान-विचार इनको' उल्लेखनीय विशेषता यह है कि इन्होंने अकिंचित्करके ( १ ) सिद्ध और ( २ ) बाधित ये दो भेद बतलाये हैं, जबकि अकलंकने अकिंचित्करका एक 'सिद्ध' मात्र भेद बतलाया है और बाधितको साध्याभासोंमें ग्रहण किया है। यथार्थ में अकिंचित्कर हेत्वाभास२ लक्षणविचारके समयमें हो होता है, वादके समय नहीं। वादके समय तो व्युत्पन्नके लिए किया गया प्रयोग पक्षमें दूषणप्रदर्शन द्वारा हो दूपित हो जाता है । तात्पर्य यह कि वादकालमें पक्षको पक्षाभास बता देनेके बाद अकिंचित्कर हेत्वाभासका उद्भावन निरर्थक है। अतः मात्र लअण-विचारमें ही अकिंचित्करका विचार किया गता है। (३) द्विविध दृष्टान्ताभास : (१) अन्वयदृष्टान्ताभास-माणिक्यनन्दिने दृष्टान्ताभासोंका निरूपण करते हुए उन्हें दो भागोंमें विभक्त किया है-(१) अन्वयदृष्टान्ताभास और (२) व्यतिरेकदृष्टान्ताभास । इनमें अन्वयदृष्टान्ताभासके चार भेद हैं-(१) असिद्धसाध्य, ( २ ) असिद्धसाधन, ( ३ ) असिद्धोभय और ( ४ ) विपरीतान्वय । इनमें आदिके तीन तो प्रशस्तपाद और दिङ्नाग कथित तथा चौथा दिग्नाग और धर्मकोति प्रतिपादित है और जिन्हें हम वादिराज द्वारा उदाहृत पूर्वोक्त दृष्टान्ताभासोंमें भी देख चुके हैं। माणिक्यनन्दिने प्रशस्तपाद, दिग्नाग और धर्मकोति प्रतिपादित तथा वादिराज द्वारा अनुसृत शेष अन्वयदष्टान्ताभासोंको छोड़ दिया है। (२) व्यतिरेकडष्टान्ताभास -अन्वयदृष्टान्ताभासोंकी तरह व्यतिरेकदष्टान्ताभासके भी चार भेद हैं-(१) असिद्धसाध्यव्यतिरेक, (२) असिद्धसाधनव्यतिरेक, ( ३ ) असिद्धोभयव्यतिरेक और ( ४ ) विपरीतव्यतिरेक । इनमें आद्य तीन प्रशस्तपाद और दिङ्नाग वणित तथा चतुर्थ दिग्नाग और धर्मकीर्ति अभिहित हैं और जिन्हें भी हम वादिराजके व्याख्यानमे ज्ञात कर चुके हैं। शेष उपर्युक ताकिकोंद्वारा स्वीकृत तथा वादिराजद्वारा प्रदर्शित व्यतिरेकदृष्टान्ताभासोंको भी माणिक्यनन्दिने स्वीकार नहीं किया। (ई) चतुर्विध बाल-प्रयोगाभास : अवयव-विमर्श प्रकरणमें यह स्पष्ट कर आये हैं कि परार्थानुमानका प्रयोग १. परी०, ६६३५-३८ । २. वही०६।३८। ३. दृष्टान्ताभासा अन्वयेऽसिद्धसाध्यसाधनोमयाः । अपौरुषेयः शब्दोऽमूर्तत्वादिन्द्रियसुखपर__माणुघटवत् । विपरोतान्वयश्च यदपौरुषेयं तदमूर्तम् । विद्युदादिनाऽतिप्रसंगात् । -परी० मु. ६।४०-४३ । ४. वही, ६२४१-४५।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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