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________________ २५४ : जैन तर्कशास मनुमान-विचार ( ३ ) सन्दिग्ध'-जो पक्ष और सपक्षकी तरह विपक्षमें भी रहे वह सन्दिग्ध अर्थात् अनेकान्तिक है । जैसे - वह सर्वज्ञ नहीं है. क्योंकि वक्ता है । वक्तृत्व हेतुके असर्वशको तरह सर्वज्ञमें भी रहनेका सन्देह है । अतः वह सन्दिग्ध है। ( ४ ) अकिंचित्कर-जिसका साध्य सिद्ध हो, अथवा अन्यथानुपपत्तिसे रहित जितने भी हेतु हों वे सब अकिंचित्कर हैं । जैसे-शब्द विनाशी है, क्योंकि कृतक है । अथवा यह अग्नि है, क्योंकि धूम है । कृतकत्व और धूम हेतु प्रत्यक्षसिद्ध विनाशित्व और अग्निको सिद्ध करनेसे अकिंचित्कर हैं। अकलंकने धर्मकीर्ति और अर्चट द्वारा उल्लिखित ज्ञातत्वरूपके अभावमें होनेवाले अज्ञात साधनाभासको असिद्धका एक भेद कहकर उसका असिद्ध में अन्तर्भाव किया है। इसी प्रकार दिग्नागके विरुद्धाव्यभिचारोका, जिसे उन्होंने अनैकान्तिकका एक भेद माना है, विरुद्ध में समावेश किया है। परस्परविरोधी दो हेतुओंका एक धर्मीमें प्रयोग होनेपर प्रथम हेतु विरुद्धाव्यभिचारी कहा जाता है। यह नैयायिकोंके प्रकरणसम ( सत्प्रतिपक्ष ) हेत्वाभास जैसा है। दोनों हेतु संशयजनक होनेसे दोनोंका समुच्चयरूप यह विरुद्धाव्यभिचारी अनेकान्तिक हेत्वाभास है। धर्मकोतिने इसे स्वीकार नहीं किया। उनका मत है कि जिस हेतुका रूप्य प्रमाणसे प्रसिद्ध है, उसके विरोधी हेतुका अवसर ही नहीं है। प्रशस्तपादका मंतव्य है कि उक्त हेत्वाभास संशयहेतु नहीं है, क्योंकि संशयका कारण विषयद्वतदर्शन है। किन्तु समानासमान जातीय दो धर्मोंम तुल्य बल होनेसे परस्पर विरोध है और इस विरोधके कारण वे (दोनों हेतु) केवल एकपक्षीय निर्णयानुत्पादक है, न कि संशयहेतु। दूसरे, वे तुल्यबल भी नहीं हैं, क्योंकि उनमेसे एकका साध्य बाधित हो जाता १. व्यभिचारी विपक्षेऽपि । -प्र० सं० का ४८, पृ० १११ । अनिश्चितविपक्षवृत्तिरनैकान्तिकः । -वही, का० ४०, पृ० १०८।। २. सिद्ध किचित्करो हेतुः स्वयं साध्यव्यपेक्षया। -प्र०सं० का० ४४, पृ० ११० । सिद्धेऽकिंचित्करोऽखिलः । -वहो, का० ४८, पृ० १११ । । ३. साध्येऽपि कृतकत्वादिः अशात: साधनाभासः । तदसिद्धलक्षणेन अपरो हेत्वाभासः । -प्र० स - स्वो० वृ० ४४, पृ० ११० । ४. न्या० प्र० पृ० ४-५ । ५. उभयोः संशयहेतुत्वाद् द्वावप्येतावेकोऽनैकान्तिकः समुदितावेव । -ज्या० प्र० पृ०५। ६. न्या० वि० पृ० ८६ । ७. 'न, संशयो विषयद्वैतदर्शनात् । "तुल्यबलत्वे च तयोः परस्परविरोधान्निर्णयानु त्पादकत्वं स्यान्न तु संशयहेतुत्वम् । न च तयोस्तुल्यबलत्वमस्ति अन्यतरस्यानुमेयोदेशस्यागमवाधितत्वादयं तु विरुद्धमेद एव । -प्रश० भा० पृ० ११६ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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