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________________ अनुमामाभास-विमर्श : २५ विस्तार बतलानेकी ओर है । पर उन्होंने सामान्यसे एक प्रसिद्ध हेत्वाभास नहीं माना और न ही विरुद्ध, असिद्ध तथा सन्दिग्धको उसका प्रकार कहा है । ज्ञात होता है कि डा. जैनको अलंकदेवके 'भन्यथासम्भवाभावभेदात् स बहुधा स्मृतः इस वाक्यमें आये 'स' शब्दसे पूर्ववर्ती कारिकावाक्य 'असिद्धश्चाक्षुषस्वादिः शब्दानित्यवसाधने' में आगत 'असिद्ध'के ग्रहण का भ्रम हुआ है। यथार्थ में 'स' शब्दसे वहां सामान्य हेत्वाभासका ग्रहण अकलकदेवको विवक्षित है । उनके व्याख्याकार वादिराजने भी 'स हेत्वाभासो बहुधा बहुप्रकारः स्मृतः मत:' इस प्रकारसे 'स' शब्दका सामान्य हेत्वाभास व्याख्यान किया है, असिद्ध नहीं । दूसरे, जब प्रकारोंमें भी 'आसिद्ध' अभिहित है तब असिद्धका असिद्ध प्रकार कैसे सम्भव है ? यह एक असंगति है । अत: अकलङ्कको विरुद्धादि अकिचित्कर नामक सामान्य हेत्वाभासके तो प्रकार अभिमत हैं, पर असिद्धके नहीं। उसे स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेकी अपेक्षा चार हेत्वाभास स्वीकार कर अकलङ्कने उनका निम्न प्रकार विवेचन किया है (१) असिद्ध-जो पक्षमें सर्वथा पाया ही न जाए अथवा जिसका साध्यके साथ अविनाभाव न हो वह असिद्ध है। जैसे-शब्द अनित्य है, क्योंकि चाक्षुष है। यहां चाक्षुषत्व हेतु शब्दमें नहीं रहता, शब्द तो श्रावण है। अतः असिद्ध हैं। (२) विरुद्ध -जो साध्यके अभावमें पाया जाए अथवा साध्याभावके साथ जिसका व्याप्ति हो वह विरुद्ध है। जैसे-सब पदार्थ क्षणिक हैं, क्योंकि सत् हैं । यहाँ सत्त्व हेतु सर्वथा क्षणिकत्वसे विरुद्ध कथंचित् क्षणिकत्वके साथ व्याप्ति रखता है । अतः विरुद्ध है। १. न्या० वि० वि० २।१९७ । २. वही, २११९६ । ३. अन्यथासम्भवाभावः अन्यथानुपपन्नत्वस्याभावः तस्य भेदा नानात्वं तस्मात् स हेत्वाभासो बहुधा बहुप्रकारः स्मृतो मत इति । कैः कृत्वा स बहुधेत्याह विरुद्धसिद्धसन्दिग्धैरकिंचित्करविस्तरैः। -वहो, २११९७। ४. असिद्धः सर्वथात्ययात् । -प्र०सं० का० ४८, पृ० १११ । असिद्धश्चाक्षुषत्वादिः शब्दानित्यत्वसाधने । -न्या०वि० २११९६ । ५. स विरुद्धोऽन्यथामावात् । -प्र० सं० का० ४८, पृ० १११ । साध्याभावसम्भवनियमनिर्णयकलक्षणो विरुदो हेत्वाभासः । यथा नित्यः शब्दः सत्त्वात् इति। -वहो, स्त्रो०१० ४०, पृ० १०७ ३०
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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