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________________ अनुमानामास-विमर्श : २१ किया ही है। पर अकलंकने बड़ी योग्यता और सूक्ष्मतासे उत्तर दिया है। वे' कहते हैं कि जो साधन अन्यथानुपपन्न नहीं है वह साधनाभास है और वह वस्तुतः एक ही है और वह है अकिंचित्कर । विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्ध ये उसीका विस्तार है। यतः अन्यथानुपपत्तिका अभाव अनेक तरहसे होता है, अतः हेत्वाभास अनेक प्रकारका सम्भव है । अन्यथानुपपत्तिका निश्चय न होनेपर असिद्ध, विपर्यय होनेपर विरुद्ध और सन्देह होनेपर सन्दिग्ध ये तीन हेत्वाभास कहे जा सकते हैं। अतएव जो हेतु त्रिलक्षणात्मक होनेपर भी अन्यथानुपपन्नत्वसे रहित हैं उन सबको अकलंक अकिंचित्कर हेत्वाभास मानते हैं । यहां प्रश्न है कि पूर्व से अप्रसिद्ध एवं अकलङ्कदेवद्वारा स्वीकृत इस अकिचित्कर हेत्वाभासका आधार क्या है ? क्योंकि वह न तो कणाद और दिग्नाग कथित तीन हेत्वाभासोंमें है और न गौतम स्वीकृत पांच हेत्वाभासोंमें ? श्री पं० सुखलालजी संघवीका विचार है कि 'जयन्तभट्टने अपनी न्यायमंजरी (पृ० १६३ )में अन्यथासिद्ध अपरपर्याय अप्रयोजक नामक एक नये हेत्वाभासको माननेका पूर्वपक्ष किया है जो वस्तुतः जयन्तके पहले कभीसे चला आता हुआ जान पड़ता है।"..."अतएव यह सम्भव है कि अप्रयोजक या अन्यथासिद्ध मानने वाले किसी पूर्ववर्ती तार्किक ग्रन्थके आधारपर ही अकलंकने अकिंचित्कर हेत्वाभासको अपने ढंगसे नयी सष्टि की हो।' निस्सन्देह जयन्तभट्टने अप्रयोजक हेत्वाभासके सम्बन्धमें कुछ विस्तारपूर्वक विचार किया है। वे पहले तो उसे छठवां ही हेत्वाभास मान लेते है और यहां तक कह देते हैं कि विभागसूत्रका उल्लंघन होता है तो होने दो, सुस्पष्ट दृष्ट अप्रयोजक ( अन्यथासिद्ध ) हेत्वाभासका अपन्हव नहीं किया जा सकता और न वस्तुका अतिक्रमण । किन्तु पीछे उसे वे असिद्धवर्गमें ही शामिल कर लेते हैं । अन्तमें 'अथवा'के साथ कहा है कि अन्यथासिद्धत्व ( अप्रयोजकत्व ) सभी हेत्वाभासवृत्ति सामान्य रूप है, छठवां हेत्वाभास नहीं । इसी अन्तिम अभिमतको १. (क) साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्नं ततोऽपरे । विरुद्धासिद्धसन्दिग्धा अकिंचित्कर विस्तराः ।। -न्यायवि० १११०१-१०२, पृ० १२७-१३० । (ख) अन्यथासम्भवाभावमेदात्स बहुधा स्मृतः । विरुद्धासिद्धसन्दिग्धेर किंचित्करविस्तरैः ।। -वही, २११६७, पृ. २२५ । (ग) अन्याथानुपपनत्वरहिता ये त्रिलक्षणाः। अकिंचित्कारकान् सर्वास्तान् वयं संगिरामहे ॥ -वहो, २२०२, पृ० २३२ । २. प्र० मी० माषाटि० पृ०९७। ३. न्या० म० पृ० १६३-१६६ (प्रमेयप्रकरण)।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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