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________________ २३० : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार बाधित-निराकृत ), (२) अनभिप्रेत और ( ३ ) प्रसिद्ध । पर सिद्ध सेन अनभिप्रेत भेद नहीं मानते, शेष सिद्ध और बाधित ये दो ही भेद स्वीकार करते हैं । किन्तु जब साध्यको वादीको अपेक्षा अभिप्रेत-इष्ट होना भी आवश्यक है, अन्यथा अनिष्ट भी साध्य हो जाएगा, तब अनभिप्रेत ( अनिष्ट ) को साध्याभासका एक प्रकार मानना ही चाहिए। उदाहरणार्थ शब्दकी अनित्यता असिद्ध और शक्य (अबाधित) होनेपर भी मीमांसकके लिए वह अनिष्ट है । अतः मीमांसकको अपेक्षा वह अनिष्ट साध्याभास है । तात्पर्य यह कि साध्याभासके लक्षणमें अनभिप्रेत विशेषण वांछनीय है और तब साध्याभास द्विविध न होकर त्रिविध होगा। साध्याभासके सम्बन्धमें अकलंकको सिद्धसेनसे दूसरी भिन्नता यह है कि अकलंकने बाधित साध्याभासके अवान्तर भेदोंका उल्लेख नहीं किया, जबकि सिद्धसेनने उसके चार भेदोंका निर्देश किया है, जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं । हाँ, अकलंकके व्याख्याकार वादिराजने' अवश्य उनके विरुद्वादि' पदका व्याख्यान करते हुए बाधित ( विरुद्ध-निराकृत ) के प्रत्यक्षनिराकृत, अनुमाननिराकृत और आगमनिराकृत ये तीन भेद वर्णित किये हैं। इनमें आदिके दो भेद सिद्धसेनके उपर्युक्त चार भेदोंमें भी पाये जाते हैं। पर 'आगमनिराकृत' नामका भेद उनमें नहीं है और वह नया है। वादिराजने सिद्धसेनके स्ववचनबाधित और लोकबाधित इन दो बाधितोंको यहाँ छोड़ दिया है। परन्तु अपनी स्वतन्त्र कृति प्रमाणनिर्णयमें उक्त तीनों बाधितोंके अतिरिक्त इन दोका भी उन्होंने कथन किया है और इस प्रकार पांच बाधितोंका वहीं निर्देश है। साधनाभास : जैन ताकिक हेतु ( साधन )का केवल एक अन्यथानुपपन्नत्व-अन्यथानुपपत्ति रूप मानते हैं। अतः यथार्थ में उनका हेत्वाभास ( साधनाभास ) भी उसके अभावमें एक होना चाहिए, एकसे अधिक नहीं? इसका समाधान यों तो सिद्धसेनने १. विरुद्धादि । विविधं रुद्ध निराकृतं प्रत्यक्षादिना विरुद्धम् । अनेनाशक्यमुक्तम् । न हि प्रत्यक्षादिनिराकृतं शक्यं साधयितुम् ।"तत्र प्रत्यक्षनिराकृतं "तद्वदेव चानुमाननिरा. कृतं...एवमागमनिराकृतमपि । -न्यायवि० वि० २।३, पृ० १२ । २. तत्र प्रत्याविरुद्धं.. अनुमानविरुद्धं ... आगमविरुद्ध स्ववचनविरुद्धं ... लोकविरुद्ध यथा"। -प्रमाणनिर्ण० पृ०६१-६२ । १. हेत्वाभासत्वमन्यथानुपपत्तिवैकल्यात् । तस्य चैकविधत्वात् तदामासानामप्येकविधत्वमेव प्राप्नोति, बहुविधत्वं चेष्यते तत्कमिति चेत् । न्या० वि०वि० २।१९६, पृ० २२५ ।. . .
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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