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________________ २१० : जैन तर्कशासमें अनुमान-विचार जैसाकि उपर्युक्त उदाहरणोंसे विदित है। इसीसे जैन दर्शनमें हेतुका एकमात्र अविनाभाव ही सम्यक् लक्षण इष्ट है । सद्भावप्रतिषेधक तीन उपलब्धियां अकलंकने' इस इस प्रकार बतलायी हैं ( १ ) स्वभावविरुद्धोपलब्धि---यथा-पदार्थ कूटस्थ नहीं है, क्योंकि परिणमनशील है। यहाँ हेतु सद्भावरूप है और साध्य निषेधरूप । तथा पदार्थका स्वभाव परिणमन करनेका है। (२) कार्यविरुद्धोपलब्धि-यथा-लक्षणविज्ञान प्रमाण नहीं है, क्योंकि विसंवाद है । यहाँ भी हेतु सद्भावरूप है और साध्य निषेधरूप । विसंवाद अप्रमाणका कार्य है। (३) कारणविरुद्धोपलब्धि-यथा-यह परीक्षक नहीं है, क्योंकि सर्वथा अभावको स्वीकार करता है। अपरोक्षकताका कारण सर्वथा अभावका स्वीकार है। अकलंकने २ धर्मकीतिके इस कथनकी कि 'स्वभाव और कार्य हेतु भावसाधक हैं तथा अनुपलब्धि अभावसाधक' समीक्षा करके उपलब्धिरूप स्वभाव और कार्य दोनों हेतुओंको भाव तथा अभाव उभयका साधक तथा अनुपलब्धिको भी दोनोका साधक सिद्ध किया है। ऊपर हम उपलब्धिरूप हेतुको सद्भाव और असद्भाव दोनोंका साधक देख चुके हैं। आगे अनुपलब्धिको भी दोनोंका साधक देखेंगे। इसके प्रथम भेद असद्भावसाधक प्रतिषेधरूपके ६ भेद बतलाये हैं । यथा (१) स्वभावानुपलब्धि-क्षणिकैकान्त नहीं है, क्योंकि उपलब्ध नहीं होता। १. यथा स्वभावविरुद्धोपलब्धि:-नाविचलितात्मा भावः परिणामात् । कार्यविरुद्धोप लब्धिः-लक्षणविज्ञानं न प्रमाणं विसंवादात् प्रमाणान्तरापेक्षणे । कारणविरुद्धोपलन्धिः-नास्य परीक्षाफलम् अभावैकान्तग्रहणात् ।। -प्र० सं० स्ववृ० का० ३०, पृ० १०५, अकलंकग्र० । २. नानुपलब्धिरेव अभावसानी। -प्र०सं० का ३० । ३. स्वभावानुपलब्धि यथा न क्षणक्षयकान्तोऽनुपलब्धेः । "कार्यानुपलब्धिः अत्र कार्याभावात् । कारणानुपलब्धि :-अत्रैव कारणाभावात्। स्वभावसहचरानुपलब्धिः-अत्र व्यापारव्याहारविशेषाभावात् । "सहचरकारणानुपलबन्धिः "अत्रैव आहाराभावात् ।। -वही, स्ववृ० का० ३०, पृ० १०५ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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