SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हेतु-विमर्श : २०९ (१) कारणहेतु'-वृक्षसे छायाका ज्ञान या चन्द्रसे जलमें पड़नेवाले उसके प्रतिबिम्बका ज्ञान करना कारणहेतु है। यद्यपि यह तथ्य है कि कारण कार्यका अवश्य उत्पादक नहीं होता, किन्तु ऐसे कारणसे, जिसकी शक्तिमें कोई प्रतिबन्ध न हो और अन्य कारणोंकी विकलता न हो, कार्यका अनुमान हो तो उसे कोन रोक सकता है ? अनुमाताकी अशक्ति या अज्ञानसे अनुमानको सदोष नहीं कहा जा सकता। (२) पूर्वचर२ - जिन साध्य और साधनोंमें नियमसे क्रमभाव तो है पर न तो परस्पर कार्यकारणभाव है और न स्वभावस्वभाववान् सम्बन्ध है उनमें पूर्वभावीको हेतु और पश्चाभावीको साध्य बना कर अनुमान करना पूर्वचर हेतु है । जैसे-एक मुहूर्त के बाद शकटका उदय होगा, क्योंकि कृत्तिकाका उदय है। (३) उत्तरचर-उक्त क्रमभावी साध्य-साधनोंमें उत्तरभावीको हेतु और पूर्वभावीको साध्य बना कर अनुमान करना उत्तरचर है। यथा-एक मुहूर्त पहले भरणिका उदय हो चुका है, क्योंकि कृत्तिकाका उदय है। यहां 'कृति काका उदय' हेतु भरणिके अनन्तर होनेसे उत्तरचर है । (४) सहचर हेतु-तराजूके एक पलड़ेको उठा हुआ देख कर दूसरे पलड़ेके नीचे झुकनेका अनुमान या चन्द्रमाके इस भागको देख कर उस भागके अस्तित्वका अनुमान सहचरहेतु जन्य है। इनमें परस्पर न तादात्म्य सम्बन्ध है, न तदुत्पत्ति, न संयोग, न समवाय और न एकार्थसमवाय, क्योंकि एक अपनी स्थितिमें दूसरेकी अपेक्षा नहीं करता, किन्तु दोनों एकसाथ होते हैं, अतः अविनाभाव अवश्य है। इस अविनाभावके बलपर हो जैन न्यायशास्त्रमें उक्त पूर्वचर आदि हेतुओंको गमक माना है । और अविनाभावका नियामक केवल सहभावनियम तथा क्रमभावनियमको स्वीकार किया है, तादात्म्य, तदुत्पत्ति, संयोग, समवाय और एकार्थसमवायको नहीं, क्योंकि उनके रहने पर भी हेतु गमक नहीं होते और उनके न रहने पर भी मात्र सहभावनियम और क्रमभावनियमके वशसे वे गमक देखे जाते हैं। १. न हि वृक्षादिः छायादेः स्वभावः कार्य वा । न चात्र विसंवादोऽस्ति । चन्द्रादर्जलचन्द्रादिप्रतिपत्तिस्तथानुमा । न हि जलचन्द्रादेः चन्द्रादिः स्वभावः कार्य वा । -लघीय० स्वो० वृ० का० १२, १३ तथा सि० वि० स्वो० ० ६।६, १५ । २. वही, का० १४ तथा सि० वि० स्वो०० ६।१६ । ३. लघीय. स्वो० वृ० का० १४ तथा सि० वि० स्वो० वृ०६।१६ । ४. सिद्धिवि० स्वो०७० ६१५, ३, न्यायवि० २।३३८, प्र०सं० का० ३८, पृ० १०७ । ५. सिद्धिवि० स्ववृ० ६३। लषीय० स्वो०३० का० १२, १३, १४ । २७
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy