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________________ २०४ : जैन तर्कशास में अनुमान-विचार लक्षण अविनाभाव या अन्यथानुपपन्नत्वको ही हेतुका स्वरूप माना है । इसके रहने पर अन्य रूप हों या न हों वह हेतु है, न रहनेपर नहीं।' २. हेतु-भेद : जैन तर्कशास्त्रमें हेतुके आरम्भमें कितने भेद स्वीकृत हैं और उत्तरकालमें उनमें कितना विकास हुआ है, इसपर विचार करनेसे पर्व उचित होगा कि भारतीय दर्शनोंके हेतुभेदोंका सर्वेक्षण कर लिया जाय । हेतुभेदोंका सर्वेक्षण : कणादने अपने वैशेषिकसूत्रमें हेतुके पांच भेद गिनाये हैं-(१) कार्य, (२०) कारण, (३) संयोगी, ( ४ ) समवायी और ( ५) विरोधी। उनके व्याख्याकार प्रशस्तपाद इतना और संकेत करते हैं कि उक्त भेद निदर्शनमात्र हैं। अर्थात् 'पांच ही हैं' ऐसा अवधारण नहीं है, क्योंकि कई हेतु ऐसे हैं जो न कार्य है न कारण, न संयोगी न समवायी और न विरोधी। उदाहरणार्थ चन्द्रोदयसे व्यवहित समुद्रवृद्धि एवं कुमुदविकाशका व शरत्कालोन जलप्रसादसे अगस्त्योदयका अनुमान होता है । पर ये हेतु न अहेतु ( हेत्वाभास ) हैं और न उक्त कार्यादि हेतुओंमेंसे किसीमें अन्तर्भूत हैं। अतः प्रशस्तपाद कणादके 'अस्येदं' इस सूत्रवचनको सम्बन्धमात्रका बोधक बतलाकर उसके द्वारा उक्त प्रकारके और भी हेतुओंके संग्रहकी सूचना करते हैं। तात्पर्य यह कि प्रशस्तपादके अभिप्रायानुसार वैशेषिक दर्शनमें पांचसे अधिक भी हेतु मान्य हैं। परन्तु प्रशस्तपादने यह नहीं बतलाया कि वे अमुक संज्ञक हेतु हैं । कणादने विरोधि लिङ्गके ( १ ) अभूतभूत, (२) भूतअभूत और ( ३ ) भूतभत इन तीन भेदोंका भी कथन किया है। शंकरमिश्रने उपस्कारमें इनका सोदाहरण विवेचन किया है। १. वादिराज, न्यायवि० वि० २।१५५; पृ० १७७-१८० तथा २।१७४ पृ० २१० । २. अस्येदं कार्य कारणं संयोगि विरोधि समवायि चेति लैङ्गिकम् । -वैशे० सू० ६।२।१। ३. शास्त्रे कार्यादिग्रहण निदर्शनार्थ कृतं नावधारणार्थम् । कस्मात् ? व्यतिरेकदर्शनात् । तद्यथा-अध्वर्युरोंश्रावयन् व्यवहितस्य हेतुर्लिङ्गम् चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धः कुमुदविकाशस्य च शरदि जलप्रसादोऽगस्त्योदयस्येति । एवमादि, तत्सर्वमस्येदमिति सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धम् । -प्रश० भा० पृ० १०४ । ४. विरोध्यभूतं भूतस्य । भूतमभूतस्य । भूतो भूतस्य । -वैशे० सू० ३१११११, १२, १३ ।। ५. शंकरमिश्र, वैशे० सू० उपस्का० ३।१।११, १२, १३, पृ० ८८-८६ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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