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________________ raja - विमर्श : १८१ यशोविजयने' मन्दमति प्रतिपाद्योंके लिए दृष्टान्तादिका प्रयोग उपयुक्त माना है । पर उनका विवेचन नहीं किया । माणिक्यनन्दिके व्याख्याकार अन्तिम जैन तार्किक चारुकीर्तिको गंगेश और उनके अनुवर्ती नव्य नैयायिकों द्वारा विकसित नव्यन्यायके चिन्तनका भी अवसर मिला है । अत: उन्होंने उससे लाभ उठाकर अन्वयि उदाहरण और व्यतिरेकि उदाहरण के लक्षण नव्यन्यायको पद्धतिसे प्रस्तुत किये हैं । जैन परम्पराके लिए उनका यह नया आलोक है । ( ४ ) उपनय : उपनयका स्वरूप बतलाते हुए गौतमने लिखा है कि उदाहरणकी अपेक्षा रखते हुए 'वैसा ही यह है' या 'वैसा यह नहीं है' इस प्रकारसे साध्यका उपसंहार उपनय कहलाता है । वात्स्यायनने गौतम के इस कथनका विशदीकरण इस प्रकार किया है - जिस अनुमाताने साध्यके सादृश्यसे युक्त उदाहरणमें स्थाली आदि द्रव्यको उत्पत्तिधर्मक होनेसे अनित्य देखा है वह 'शब्द उत्पत्तिधर्मक है' इस अनुमान में साध्य - स्थाली आदि द्रव्यका भी उत्पत्तिधर्मकत्व में उपसंहार करता है । इसी तरह जिसने साध्य के वैसादृश्यमे युक्त उदाहरणमें आत्मा आदि द्रव्यको अनुपत्तिधर्मा होनेसे नित्य जाना है वह शब्द में नित्यत्व न मिलनेपर अनुत्पत्तिधर्मकत्व के उपसंहार-प्रतिषेधसे उसमें उत्पत्तिधर्मकत्व का उपसंहार करता है । उपसंहारका अर्थ है दोहराना । जिस अनुमानावयव में उदाहरणकी प्रसिद्धिपूर्वक हेतुविशिष्टत्वेन अनुमेयको दोहराया जाए वह उपनय है । वात्स्यायनने " गौतमके आशयानुसार उदाहरण तथा हेतुकी तरह उपनयके भी अन्वय और व्यतिरेकरूप दो भेदोंका निर्देश किया I उद्योतकर आदि उत्तरवर्ती सभी नैयायिकोंने न्यायसूत्रकार और वात्स्यायनका समर्थन किया है । - न्यायसू० ११३८ । ४. न्यायमा० १।१।३८, पृ० ५१ । ५. वही, १ १ ३८, पृ० ५१ । १. मन्दमतिस्तु व्युत्पादयितुं दृष्टान्तादिप्रयोगोऽप्युपयुज्यते यस्तु प्रतिबन्धग्राहिणः प्रमाणस्य न स्मरति तं प्रति दृष्टान्तोऽपि । — जैन तर्कभा० पृ० १६ । २. अन्वयव्याप्तिविशिष्ट हेत्व बच्छिन्नपर्वतविशेष्यकसाध्य प्रकार कबोधजनकत्वात्रयत्वमन्वय्युदाहरणस्य लक्षणम् ।... ...व्यतिरेकव्याप्तिविशिष्टसाधनावच्छिन्नविशेष्यकसाध्य प्रकार कबोधजनकावयवत्वं व्यतिरेकोदाहरणस्य लक्षणम् । - प्रेमरत्नालं० ३ | ४७, ४९, पृ० १२०, १०१ । ३. उदाहरणापेक्षस्तथेत्युपसंहारो न तथेति वा साध्यस्योपनयः ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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