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________________ १८० : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार ने उसका प्रतिपादक मूत्र दिया है। इन्होंने दृष्टान्तके द्वैविध्यमें माणिक्यनन्दि को तरह अन्वय-व्यतिरेक शब्द न देकर सिद्धसेनकी तरह साधर्म्य-वधर्म्य शब्द प्रयुक्त किये है । हेमचन्द्रने' इस सम्बन्ध देवसूरिका अनुसरण किया है। __धमभूपणने दृष्टान्तके सम्यक वचनको उदाहरण और व्याप्तिके सम्प्रतिपत्तिप्रदेशको दृष्टान्त कहा है । जहां वादी और प्रतिवादीकी बुद्धिसाम्यता ( अविवाद ) है उस स्थानको सम्प्रतिपत्ति-प्रदेश कहते हैं । जैसे रसोईशाला आदि अथवा तालाब आदि । क्योंकि वहाँ 'धूमादिकके होनेपर नियमसे अग्न्यादिक पाये जाते हैं और अग्न्यादिकके अभावमें नियमसे धूमादिक नहीं पाये जाते' इस प्रकारकी सम्प्रतिपत्ति सम्भव है । रसोईशाला आदि अन्वय दृष्टान्त हैं, क्योंकि वहाँ साध्य और साधनके सद्भावरूप अन्वयबुद्धि होती है । और तालाब आदि व्यतिरेक-दृष्टान्त हैं, क्योंकि वहाँ साध्य और साघन दोनोंके अभावरूप व्यतिरेकका ज्ञान होता है । ये दोनों ही दृष्टान्त हैं, क्योंकि साध्य और साधन दोनोंरूप अन्त- अर्थात् धर्म जहां सद्भाव अथवा असद्भाव रूपमें देखे जाते हैं वह दृष्टान्त है, ऐसा दृष्टान्त शब्दका अर्थ उनमें निहित है । धर्मभूषण" एक विशेष बात और कहते हैं। वह यह कि दृष्टान्तका दृष्टान्तरूपसे जो वचन-प्रयोग है वह उदाहरण है। केवल वचनका नाम उदाहरण नहीं है । इसके प्रयोगका वे निदर्शन इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं-जैसे, जो जो धूमवाला होता है वह वह अग्निवाला होता है, यथा रसोईघर, और जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम भी नहीं है, जैसे तालाब, इस प्रकारके वचनके साथ ही दृष्टान्तका दृष्टान्तरूपसे प्रतिपादन करना उदाहरण है । १. प्र० न० त०, ३।४३, पृ० ५६७ । २. स द्वेधा साधर्म्यतो वैधयंतश्चेति । यत्र साधनधर्मसत्तायामवश्यं साध्यधर्मसत्ता प्रकाश्यते स साधर्म्यदृष्टान्त इति । यत्र तु साध्याभावे साधनस्यावश्यमभावः प्रदर्श्यते स वैधर्म्यदृष्टान्त:। -वही, ३।४४, ४५, ४६, पृ० ५६७, ५६८ । ३. स व्याप्तिदर्शनभूमिः। स साधर्म्यवैधाभ्यां द्वेषा। साधनधर्मप्रयुक्तसाध्यधर्मयोगी साध Hदृष्टान्तः साध्यधर्मनिवृत्तिप्रयुक्तसाधनधर्मनिवृत्तियोगी वैधHदृष्टान्तः । -प्रमाणमो० १।२।२०, २१, २२, २३, पृ० ४८ । ४. उदाहरणं च सम्यग्दृष्टान्तवचनम् । कोऽयं दृष्टान्तो नाम ? इति चेत्, उच्यते, व्याप्ति सम्पतिपत्तिप्रदेशो दृष्टान्तः । तत्र महानसादिरन्वयदृष्टान्तः-हृदादिस्तु व्यतिरेकदृष्टान्तः।"दृष्टान्तौ चैतौ दृष्टावन्तौ धौ साध्यसाधनरूपौ यत्र स दृष्टान्त इत्यर्थानुवृत्तः । -न्यायदी० पृ० १०४-१०५। प्रमेयक० मा० ३।४७, पृ० ३७७ । ५. न्यायदी० पृ० १०५ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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