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________________ भवयव-विमश : १११ १. उन्होंने इन अवयवोंका परिभाषाओं सहित विवेचन किया है, जो उनके पूर्व जैन तर्कशास्त्रमें उपलब्ध नहीं है । २. प्रतिज्ञाके स्थानमें उन्होंने पक्षको रखा है और जिससे निम्न दो नये तथ्य सामने आते हैं-- (अ) गृद्धपिच्छ, समन्तभद्र और पूज्यपाद द्वारा अर्थतः या शब्दतः प्रतिपादित प्रतिज्ञा प्रायः पक्षके पूरे अर्थका स्पष्टीकरण करने में असमर्थ है, अतः सिद्धसेनने उसके स्थानमें 'पक्ष' शब्दको देकर उसकी व्याख्याद्वारा प्रतिज्ञाका स्वीकरण निर्दिष्ट किया है। ( आ ) सिद्धान्तयुगमें प्रतिज्ञाशब्दका प्रयोग स्वयं सिद्धियोंकी स्वीकृतिके लिए भी होता था; अतः प्रतिज्ञासे सिद्धान्त और तर्क दोनों रूपोंका बोध किया जाता है । पर पक्षशब्दने स्वयं सिद्धियोंसे हटाकर तर्कके क्षेत्रमें विचारविनिमयको आबद्ध कर तर्कप्रणालीको पुष्ट किया एवं प्रश्रय दिया। सम्भवतः सिद्धसेनका प्रतिज्ञाके स्थानमें पक्षशब्दको रखनेका यही आशय रहा होगा। प्रतिपाद्योंकी दृष्टिसे अवयव प्रयोग : सिद्धसेन तक जैन चिन्तकोंने प्रतिपाद्यविशेषको अपेक्षासे अवयवोंका विचार नहीं किया। केवल सामान्य प्राश्निकोंको लक्ष्यमें रखकर उनका प्रयोग किया है। किन्तु आगे चल कर प्रतिपाद्योंको दो वर्गों में विभक्त कर उनको दृष्टिसे अवयवोंका प्रयोग स्वीकार किया गया है। प्रतिपाद्य दो प्रकारके हैं-(१) व्युत्पन्न और (२) अव्युत्पन्न । व्युत्पन्न वे हैं जो संक्षेप या संकेतमें वस्तुस्वरूपको समझ सकते हैं और जिनके हृदयमें तर्कका प्रवेश है । अव्युत्पन्न वे प्रतिपाद्य हैं जो अल्पप्रज्ञ हैं, जिन्हें विस्तारसे समझाना आवश्यक होता है और जिनके हृदयमें तर्कका प्रवेश कम रहता है। अकलङ्कदेवने अवयवोंको समीक्षा करते हुए पक्ष और हेतु इन दो ही अवयवोंका समर्थन किया है । उनका अभिमत है कि कुछ अनुमान ऐसे भी हैं, जिनमें दृष्टान्त नहीं मिलता। पर वे उक्त दो अवयवोंके सद्भावसे समीचीन माने जाते हैं। वे पक्ष और हेतुकी समीक्षा न कर केवल दृष्टान्तकी मान्यताका आलोचन करते हुए कहते हैं कि दृणन्त सर्वत्र आवश्यक नहीं है। अन्यथा 'सभी पदार्थ क्षणिक हैं, क्योंकि वे सत् हैं इस अनुमानमें दृष्टान्तका अभाव होनेसे क्षणिकत्व सिद्ध नहीं हो सकेगा। अतएव अकलङ्कके विचारसे किन्हीं प्रतिपाद्योंके लिए या कहीं पक्ष १. सर्वत्रैव न दृष्टान्तोऽनन्वयेनापि साधनात् । अन्यथा सर्वभावानामसिद्धोऽयं क्षणक्षयः ॥ -न्या० वि० का० ३८१, अकलयः।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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