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________________ प्रस्तुत कृति : ९ द्वितीय अध्यायमें दो परिच्छेद हैं । प्रथममें जैन प्रमाणवादका विवेचन करते हुए उसमें अनुमानका क्या स्थान है, इसे बतलाकर प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेदोंकी मीमांसा, परोक्षप्रमाण में अनुमानका अन्तर्भाव, स्मृति आदि परोक्ष प्रमाणोंका संक्षिप्त विवेचन किया गया है । द्वितीय परिच्छेद में जैनागमके आलोक अनुमानका प्राचीन रूप, अनुमानका महत्त्व एवं अनिवार्यता, जैन दृष्टिसे अनुमान - परिभाषा एवं क्षेत्र - विस्तार इन सवपर प्रकाश डाला गया है । तृतीय अध्यायमें भी दो परिच्छेद हैं । पहले में अनुमान के विविध भेदोंपर भारतीय दर्शनों में किया गया विचार ग्रथित है तथा अकलङ्क, विद्यानन्द, वादि - राज, प्रभाचन्द्र आदि जैन तार्किकोंकी तत्सम्बन्धी मीमांसा एवं विमर्श निबद्ध है । प्रत्यक्षको अम्मानकी तरह परार्थ माननेवाले सिद्धसेन और देवमूरिका मत तथा उसकी समीक्षा प्रदर्शित है । स्वार्थ और परार्थ अनुमानोंकी मूलकल्पना, उद्गमस्थान एवं पृष्ठभूमि, उनके अङ्ग एवं अवयवोंका चिन्तन भी इसमें अङ्कित है । द्वितीय परिच्छेद में व्याप्तिका स्वरूप, उपाधिमीमांसा, उपाधि-विमर्श-प्रयोजन, व्याप्तिस्वरूपके सम्बन्धमें जैन तार्किकोंका नया दृष्टिकोण, व्याप्तिग्रहण - समीक्षा, व्याप्तिग्राहकरूपमें एकमात्र तर्कको स्वीकार करनेवाले जैन विचारकों का अभिनव चिन्तन तथा व्याप्तिभेद ( समव्याप्ति - विषमव्याप्ति, अन्वयव्याप्ति-व्यतिरेकव्याप्ति, बहिर्व्याप्ति, सकलव्याप्ति, अन्तर्व्याप्ति, साधर्म्य - वैत्रर्म्यत्र्याप्ति, तथोपपत्ति- अन्यथानुपपत्ति ) इन सबका विमर्श है । चतुर्थ अध्याय में दो परिच्छेद हैं। प्रथममें सामान्य तथा व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न प्रतिपाद्यों की अपेक्षासे अवयवोंका विचार, प्रतिज्ञा, हेतु आदि प्रत्येक अवयवका विशिष्ट स्वरूप - चिन्तन और भद्रबाहु प्रतिपादित पंचशुद्धियों सहित दशावयवोंके सम्बन्ध में दिगम्बर और श्वेताम्बर तार्किकोंका विचारभेद विवेचित है। द्वितीयमं हेतुके विभिन्न दार्शनिकलक्षणों (द्विलक्षण, त्रिलक्षण, चतुर्लक्षण, पंचलक्षण, पड्लक्षण, और सप्त लक्षण ) की समीक्षा तथा एकलक्षण ( अन्यथानुपपन्नत्व ) की जैन मान्यताका विमर्श है । परिच्छेद के अन्त में हेतुके विभिन्न प्रकारों - भेदोंका चिन्तन है । पञ्चम अध्यायके अन्तर्गत दो परिच्छेद हैं । आद्य परिच्छेद में समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलङ्क, माणिक्यनन्दि, देवसूरि और हेमचन्द्र द्वारा प्रतिपादित पक्षाभासादि अनुमानाभासों का विवेचन है । धर्मभूषण, चारुकीर्ति और यशोविजयने अनुमानदोषोंपर जो चिन्तन किया है वह भी इसमें संक्षेप में निवद्ध है । माणिक्यनन्दि द्वारा अभिहित चतुविध बालप्रयोगाभास भी इसी में विवेचित है जो सर्वथा नया है और अन्य भारतीय तर्कग्रन्थोंमें अनुपलब्ध है । दूसरे परिच्छेदमें वैशेषिक, न्याय और बौद्ध परम्पराओंमें चर्चित एवं विकसित अनुमानदोषोंका विचार अङ्कित है, जो तुलनात्मक अध्ययनकी दृष्टिसे उपादेय एवं ज्ञातव्य है ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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