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________________ १३२ : जैन तर्कशास में अनुमान-विचार विकका अर्थ अनोपाधिक किया है और उपाधिके विशदीकरणके साथ उसके भेदोंका भी विवेचन किया है। वाचस्पति और उदयनके इस निरूपणसे अवगत होता है कि साध्प-साधन या गम्य-गमकरूपसे अभिमत दो वस्तुओंमें नियत सम्बन्धका कारण अनोपाधिकता है और अनियतसम्बन्धका कारण औपाधिकता ( उपाधि ) । उपाधि न होनेसे साधन साध्यका नियमसे अनुमापक होता है और उपाधिके रहनेसे साधन साधन न रहकर साधनाभास हो जाता है और वह साध्यका सम्यक गमक नहीं होता । उदाहरणार्थ 'अयोगीलकं धूमवत् वह्नः' इस अनुमानमें आर्दैन्धनसंयोग उपाधि है। अतएव 'वह्नि' हेतु सोपाधिक होने से व्याप्यत्वासिद्ध या व्यभिचारी हेत्वाभास माना गया है । और इसलिए उसमे यथार्थ अनुमिति सम्भव नहीं है । अतः साध्य-साधनमें नियत सम्बन्धके निर्णायार्थ उसका उपाधिरहित होना आवश्यक है। (ख) उपाधि : यतः नियतसम्बन्ध-व्याप्तिका उपर्युक स्वरूप उपाधिघटित है, अतः उपाधिका विश्लेषण आवश्यक है । इसका अभिधेयार्थ है-'उप समीपवर्तिनि आदधाति स्वकीयं रूपमिनि उपाधि.'२-जो समीपवर्ती वस्तुमें अपना रूप आरोपित करे वह उपाधि है। उदाहरणके लिए जपाकुसुमको लिया जा सकता है। यदि जपाकुसुमको स्वच्छ स्फटिकर्माणके समीप रख दें तो उसकी लालिमा उसमें आरोपित हो जाती है । यतः यह लालिमा जपाकुसुमरूप उपाधिके संसर्गसे उसमें आयी है, अतः वह औपाधिक है, स्वाभाविक नहीं। इसी प्रकार वह्नि हेतुसे धूमानुमान करने में धूमसामग्रो ( आईन्धनसंयोग ) उपाधि है, क्योंकि उसके संसर्गसे 'वह्नि म धूमव्याप्तिका आरोप ( आधान ) होता है। अतः 'वह्नि' हेतु आईन्धनसंयोगरूप उपाधियुक्त होने के कारण साध्यका गमक नहीं है। उपाधिको उदयनकृत परिभाषाके अनुसार भो आāन्धनसंयोग साध्यका व्यापक और साधनका अव्यापक होनेसे उपाधि है और उपाधिसहित होनेके कारण 'वह्नि' हेतु धम-साध्यका साधक नहीं है। इसी तरह ‘स श्यामी मैत्री १. वही. पृ० ३००, ३०१ । २. हेत्वाभासविशेषप्रयोजकीभूनोऽर्थः ( उपाधिः ) । यद्यभिचारित्वेन साधनस्य साध्यव्य भिचारित्वं सः । उदयनाचार्यमते उपाधिपदं योगरूढम् । अत्र व्युत्पत्तिः। उप समीपवर्तिनि आदधाति संक्रामयति स्वीयं धर्ममित्युगाधिः, इति । यथा स्फटिकल हत्ये जपाकुसुममुपाधिरित्यत्र लीहित्यसंकामकत्वम् ।" । -भीमाचार्य, न्यायकोश पृष्ठ १७७, 'उपाधि' शब्द । ३. साध्यव्यापकत्वे सापनाव्यापकत्वमिति । -किरणाव० पृष्ठ ३००।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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