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________________ व्याप्ति-विमर्श : १३१ व्याप्तिसमीक्षण-प्रकरणमें यह कहा जा चुका है कि गौतमके न्यायसूत्र, वात्स्यायनके न्यायभाष्य और उद्योतकरके न्यायवातिकमें व्याप्तिको स्वीकार नहीं किया । अतः इन ग्रन्थों में व्याप्तिका स्वरूप उपलब्ध नहीं होता । बौद्ध तार्किक धर्मकीति' और उनके व्याख्याकार अचंटने अवश्य उसका स्वरूप निर्दिष्ट किया है । उन्होंने बताया है कि व्यापकके होने पर हो व्याप्यका होना अथवा व्याप्यके होने पर व्यापकका होना हो हेतुको व्याप्ति है। यहीं व्यापक और व्याप्य दोनोंके धर्मको व्याप्ति कहा गया है । जब यह कहा जाता है कि व्यापकके होने पर ही व्याप्यका होना व्याप्ति है तब व्याप्य-धर्म व्याप्ति विवक्षित है। और जब यह प्रतिपादन किया जाता है कि व्याप्यके होने पर व्यापकका होना ही व्याप्ति है तब व्यापकधर्म व्याप्ति अभिप्रेत है। __न्यायवात्तिकतात्पर्यटोकाकार वाचस्पतिने यद्यपि व्याप्तिको लक्ष्य मानकर उसका स्वरूप नहीं दिया, क्योंकि उन्हें न्यायपरम्परानुसार व्याप्ति स्वीकार्य नहीं है, पर उन्होंने साध्य के साथ साधनका स्वाभाविक सम्बन्ध मानकर उसका जैसा विवेचन किया है वह व्याप्ति जैसा है। उदयनने उनके आशयका उद्घाटन व्याप्तिपरक किया है । वाचस्पतिने लिखा है कि कोई सम्बन्ध हो, वह जिसका स्वाभाविक एवं नियत है वही गमक और इतर सम्बन्धी गम्य होता है। और स्वाभाविकका अर्थ है कोई उपाधि न होना। जैसे धूमादिकका वह्नयादिके साथ स्वाभाविक सम्बन्ध है, क्योंकि उसमें कोई उपाधि नहीं है। पर वह्नयादिका घूमादिके साथ स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि वह्नयादि धूमादिकके बिना भी उपलब्ध हैं। अतः यहाँ आन्धनादि उपाधिका अनुभव किया जाता है । तात्पर्य यह कि वाचस्पतिके' अभिप्रायानुसार निरुपाधिक स्वाभाविक सम्बन्धका नाम व्याप्ति है । उदयनने वाचस्पतिका अनुसरण करते हुए स्पष्टतया स्वाभा१. तस्य व्याप्तिहि व्यापकम्य तत्र भाव एव । व्याप्यस्य वा तत्रैव भावः । -हेतुबि० पृ० ५३ । २. तस्य पक्षधर्मस्य सतो व्याप्ति:-या व्यानोति यश्च व्याप्यते तदुभयधर्मतया प्रताते :। -हेतुबि० टी० पृष्ठ १७-१८ । ३. तस्माद्यो वा स वाऽस्तु सम्बन्धः, केवलं यस्यासी स्वाभाविको नियतः स एव गमको गम्यश्चेतर : सम्बन्धीति युज्यते ।। -न्या० वा० ता० टी० ११११५, पृष्ठ १६५ । ४. न्यायवा० ता० परि० १।११५, पृ० ६७६ । ५. तस्मादुपाधि प्रयत्नेनान्विष्यन्तोऽनुपलभमाना नास्तोत्यवगम्य स्वाभाविकत्वं सम्बन्धस्य निश्चिनुमः। -न्या. वा० ता० टी० ११५, पृ० १६५ । ६. ननु कोऽयं प्रतिबन्धो नाम । अनौपाधिकः सम्बन्ध इति ब्रूमः । -किरणा० पृ० २६७ तथा ३०० ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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