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________________ ११६ : जैन तर्कशास में अनुमान-विचार साध्यके अभावमें नहीं होते तो अन्यथानुण्पत्तिके बलसे ही उनमें गमकता माननी चाहिए, न कि वीतादिम्पता होने मे ही। अन्यथा अन्यथानुपपत्तिके अभावमें भी उन्हें गमक मानना पड़ेगा। तात्पर्य यह कि 'वज्र लोहलेख्य है क्योंकि वह पार्थिव है, जैसे अन्य सूवर्णादि धातुएं' यह वीत हेतु है। पर पार्थिवत्वकी लोहलेख्यत्वके साथ व्याप्ति ( अन्यथानुपपत्ति ) न होनस हेन्वाभास है। अतः कोई भी हेतु क्यों न हो, यदि वह अन्यथानुपपन्न है तो माध्यका अवश्य अनुमापक होगा । इसलिए हेतुकी गमकताका प्रयाज क. तत्त्व अन्यथानपपनत्व है, वीनत्व, अवीतत्व और वीतावीतत्व नहीं। यदि कहा जाए कि अन्यथानुपपत्ति वीतादिम्पको प्राप्त करके ही हेतुका लक्षण है तो यह 'देवतां प्राप्य हरीतकी विरेचयते' अर्थात् 'देवताको पाकर हरीतको विरंचन ( पाचन ) कराती है' कहावत चरितार्थ होती है। विरेचनका हरीतकीके साथ अन्वय-व्यतिरेक होनम वह देवतोपयोगिनो होती है, देवताके साथ विरेचनका सीधा अन्वय-व्यतिरेक नहीं है, ऐसा माननेपर तो प्रकृतमं भी यही कहा जा सकता है, क्योंकि अन्यथानुपपत्तिके होनेपर हेतु गमक होता है और उसके अभावमें वह गमक नहीं होता। अत: वीतादित्रयम्प होनस हेतुमें गमकता नहीं है। इसके अतिरिक्त समस्त हेतृभेदोंका उस ( वातादिवय ) में मंग्रह भी नहीं हो पाता है। विद्यानन्दकी' दूमगे उल्लेग्ययोग्य बात यह है कि वे पूर्ववत् आदि अनुमानोंके विनियमको अव्यापः बतलाते है । वे कहते है कि जिस प्रकार ( १ ) कारणसे कार्यका अनुमान पूर्ववत् अनुमान है । यथा-ये मेघ वृष्टि करने की शक्तिम सम्पन्न है, क्योंकि गम्भीर गजना और चिरप्रभाव युक्त होकर छाये हए है, जैसे अन्य वर्षने वाले मेघ । ( २ ) कायंस कारणका अनुमान शेषवत् अनुमान है । यथायहां अग्नि है, क्योंकि धूम है, जैसे रसोई घर । ( ३ ) जो न कार्य है और न कारण है उससे अनुभयात्मक ( अकार्यकारण ) का अनुमान सामान्यतोदृष्ट अनु. मान है। यथा--इस फलका मधुर रस है, क्योंकि इसका रूप है, जैसे उसी तरहके अन्य फल । उसी प्रकार उभयात्मक ( कारणकार्य रूप ) हेतुसे उभयात्मक (कारणकार्यरूप) साध्यका ज्ञान ( अनुमान ) सम्भव है, क्योंकि जिनमें परस्पर उपकार्य-उपकारकभाव होता है उनमें अविनाभाव देखा जाता है। उदा १. उभयात्मनोऽपि वस्तुनी भावात् । यथैव हि कारणात्कायेंऽनमानम् -वृ'ट्युत्पादन शक्तयोऽमी मेघा गम्भोरध्वानत्वे चर प्रभावत्वं च सति समुन्नतत्वात् प्रमि विधमेय. वदति । कार्यात्कारणे-वह्निरत्र धमान्महानतदिति । अकार्यकारणादनुभयात्मनि शानम् --मधुररसमिदं फमेवं वधरूपत्वात्तादृशान्यफलवदिति । तथैवोभयामकात् लगादभयात्मके लिगनि शानविरुद्धम्, परस्परोपकार्योपकारकयोरावनाभावदशनात । यथा बीजांकुरसन्तानयो : । . . .।' त० ला० १।१३।२०३, २०४, पृष्ठ २०७ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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