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________________ अनुमानभेद-विमर्श : ११५ नन्द', वादिराज प्रभाचन्द्र प्रभति मनीषियोंने भी अपने तर्क ग्रन्थों में उस मीमांसाको वितृत तथा पल्लवित किया है । (ख) विद्यानन्दकृत अनुमानभेद-मीमांसा : विद्यानन्दको मोमांमाकी दो बातें उल्लेखनीय हैं । एक पह कि उन्होंने न्यायवार्तिकमें उल्लिखित एवं प्रतिपादित वीत और अवीत हेतद्वयके अतिरिक्त वीतावीत नामके एक तीसरे हेतु का भी निर्देश किया है जो उन्हें किसी प्राचीन न्यायग्रन्थसे प्राप्त हुआ होगा, क्योंकि न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक आदि न्याय-ग्रन्थोंमें वह उपलब्ध नहीं होता । हाँ, जैन ग्रन्थ न्यायविनिश्चयविवरणमें उमे वादिगजने" अवश्य दिया है, जो या तो विद्यानन्दमे लिया गया है और या विद्यानन्दको तरह उन्होंने भी उसी प्राचीन न्यायग्रन्थपरगे लिया है जो आज उपलब्ध नहीं है। विद्यानन्दने इसका स्वरूप और उदाहरण भी दिया है । वे लिखते हैं कि वीतानुमान तो वह है जो स्वम्पत: विधिम्प अर्थका परिच्छेदक है । जैसे-शब्द अनित्य है, क्योंकि वह उत्पत्तिधर्म वाला है, जैग पड़ा । अबीतानुमान वह है जो निषेधमग्यमे अर्थका ज्ञापक है। यथा-यह जीवित मगेर आत्मशन्य नहीं है, क्योंकि उममें प्राणादिके अभावका प्रमंग आएगा, जैग घटादि । तथा वीतावीतानुमान वह है जो विधि और निपेध दोनों स्पगे अर्थकी परिच्छित्ति कगता है । यथा-यह पर्वत अग्निहित है, निरग्नि नहीं है, क्योंकि धम वाला है, अन्यथा धमके अभावका प्रसंग आएगा। विद्यानन्द इनकी ममीक्षाम एक ही बात कहते है। वह यह कि ये तीनों हेतु यदि १. त० इला३. पृ२०५, २० । २. न्या. 400-१७४, पृष्ट २०११० । ३. प्रमेयक, मा, ३.१५. पृष्ट ३६२ । ४. यदा यत्रावाचि-उदाहरणमाधम्या माध्यमाधनं हनुरिति वीतलक्षणं लिगं नम्वरूपेणा थप दकयं । नयम पनि बनात . यथा--अनित्यः शब्द उत्पत्तिधर्मकत्वाद घटवन उदाहरण म्यानमाधनम् रिन्यानलक्षणम..'। उदाहरणमाधवि. धाभ्यां माध्यमायनगनुमानमान वानाचीतलक्षणं पक्ष यानन परपक्षमतपेयेन चार्थपरिन्टेदनयत । • • • । -नारला. ११३२००, पृष्ट ००६ । तया प्र० प्र० पृष्ठ ७५ । ५. न्या. वि० वि०७३, पृष्ठ २०८ । ६. तदननादत्रयं याद मायाभावासम्भ' ग नदाउन्ययानुपपत्तिबलादेव गमकवं न पुनवांत दिगनवन्यन्यथानुपात्तिविहे गमकन्यममगात् । यदि पुनग्न्यथानुपपत्तिवनिाद प्राप्य तालक्षणं तदा 'देवनां प्राप्य हगतकी विजय' इति कस्यचिनभापतम यातम । हर्गतम्यन्वयन्यनिरंकानुविधानावरेचनस्य म्वदेवतापयागिनी नदन्वयव्यतिरेकानुप्रधानाभावात्तस्यनि प्रकृतपि ममानन् । हतारन्यथानुपपत्तिमदम-प्रयुक्तवादगमकवागमकत्वयोगिति न कि चदातादिविनयन लक्षणानां मंदानां या मर्पयागमत्वानंगत्वात् सबमेटासंग्रहाच्च । -त. ०१.३.२०२, पृ० २०६।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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