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________________ ८८ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार ___इसी प्रकार स्वाभावहेतुमें' जो व्यभिचार दिखाया गया है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि केवल स्वभावको हेतु स्वीकार नहीं किया है, अपितु व्याप्यरूप स्वभावको ही व्यापकके प्रति गमक माना गया है । और यह तथ्य है कि व्याप्य कभी भी व्यापकका व्यभिचारी नहीं होता, अन्यथा वह व्याप्य ही नहीं रहेगा। दूसरी बात यह है कि अविनाभावी स्वभाव-हेतुको व्यभिचारी मानने पर चार्वाक प्रत्यक्षमें अविसंवादित्व और अगौणत्वरूप स्वभावहेतुओंसे प्रामाण्य निश्चय नहीं कर सकता। अनुपलब्धिहेतुमें व्यभिचारप्रदर्शन भी विचारशून्य है। यथार्थ में अविनाभावी अनुपलब्धिहेतु अभावका साधक माना गया है। जो साध्याविनाभावी नहीं है वह हेतु हो नहीं है--हेत्वाभास है, यह हम ऊपर कह आये हैं। अतः चाहे दृश्यानुपलब्धि हो और चाहे अदृश्यानुपलब्धि, दोनों अविनाभावविशिष्ट हो कर ही अभावसाधिका है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार अनुमानप्रामाण्यके निषेधमें दिये गये तीनों ही कारण युक्ति-युक्त नहीं है । अब ऐसे तथ्य उपस्थित किये जाते हैं, जिनसे चार्वाक दर्शनको भी अगत्या अनुमान मानना पड़ता है । यथा-- ( १ ) जब चार्वाकसे पूछा जाता है कि प्रत्यक्ष ही प्रमाण क्यों है और अनुमान प्रमाण क्यों नहीं ? तो इसका उत्तर वह यही देता है कि प्रत्यक्ष अगौण और अविसंवादी होनेसे प्रमाण है, पर अनुमान गौण तथा विसंवादी होनेसे प्रमाण नहीं है । इस प्रकारका कथन करके वह स्वभावहेतु-जनित अनुमानको स्वयमेव स्वीकार कर लेता है । अगौणत्व और अविसंवादित्व प्रमाणका स्वभाव हैं । और उन्हें हेतु बनाकर प्रत्यक्षके प्रमाण्यको सिद्ध करना निश्चय ही अनुमान है तथा गौणत्व एवं विसंवादित्वको हेतुरूपमें प्रस्तुत करके अनुमानको अप्रमाण सिद्ध करना भी अनुमान है। अगौणत्व एवं अविसंवादित्वको प्रामाण्यके साथ और गौणत्व तथा विसंवादित्वको अप्रामाण्य के साथ व्याप्ति है और व्याप्तिज्ञानपूर्वक जो ज्ञान होता है वह अनुमान कहा जाता है। अतः चार्वाकको प्रत्यक्षमें प्रामाण्य सिद्ध करने और अनुमानमें अप्रामाण्य स्थापित करनेके लिए उक्त प्रकारका अनुमान मानना पड़ेगा। ( २ ) इस (शिष्य)में बुद्धि है क्योंकि बोल रहा है अथवा चेष्टादि कर रहा है, इस प्रकार चार्वाकको शिष्यादिमें बुद्धिका अस्तित्त्व स्वीकार करना पड़ेगा, क्यों १. यदपि स्वभावहेतोय॑मिचारसम्भावनमुक्तम्, तदप्यनुचितमेव, स्वभावमात्रस्याहेतुत्वात् । व्याप्यरूपस्यैव स्वभावस्य व्यापकं प्रति गमकत्वाभ्युपगमात् । न च व्याप्यस्य व्यापकव्यभिचारित्वम्, व्याप्यत्वविरोधप्रसंगात् । -प्रमेयर० मा०, १२, पृष्ठ ४५ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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