SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुमान-समीक्षा : ८३ कशाखाप्रभवत्वादुपयुक्ताम्रफलवत, स श्यामः तत्पुत्रत्वादितरपुत्रवत्,....इत्यादीनि साधनानि त्रिलक्षणान्यपि न साध्य-सिद्धये भवन्ति । विश्वमनेकान्तात्मक सत्त्वात्....इत्यादीनि साधनानि अविलक्षणान्यपि साध्यसिद्धये प्रभवन्ति । तत: इदमन्तरेण इदमनुपपन्नमितीदमेव लक्षणं लिंगस्येति प्रत्येतव्यम् । यहाँ श्रुतज्ञानके वर्णन-प्रसंगमें उसके दो भेद बतलाये हैं--( १ ) शब्दलिंगज और ( २ ) अशब्दलिंगज । अशब्दलिंगज श्रुतज्ञानका उदाहरण है--धमके निमित्तसे अग्निका ज्ञान करना । आगे लिंगका लक्षण वही दिया है जो अनुमान-निरूपणमें कहा जाता है । इससे वीरसेनका स्पष्ट मत है कि अनुमान अशब्दलिंगज श्रुतज्ञान है। ६. वीरसेनका यह मत षट्खण्डागमपर आधृत है । षट्खण्डागममें आचार्य भूतबली-पुष्पदन्तने ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा जिन पांच सम्यग्ज्ञानों और तीन मिथ्याज्ञानोंका निरूपण किया है उनमें प्रथम सम्यग्ज्ञानका नाम 'आभिनिबोधिक' है, मतिज्ञान नहीं है, मति तो उसके चार पर्यायोंमें परिगणित तीसरे ज्ञानका नाम है । यथा-- सण्णा सदी मदी चिंता चेदि । संज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये आभिनिबोधिक ज्ञानके पर्याय हैं । पटखण्डागमके इस सूत्रमें आभिनिबोधिक ज्ञानके पर्यायनामोंको गिनाते हुए जहाँ अनुमानके पूर्व में आवश्यक रूपसे रहने वाले चिन्ता आदि ज्ञानोंका निर्देश है वहाँ अनुमानका अनुमानशब्दसे या उसके बोधक किसी पर्यायशब्दसे कोई उल्लेख नहीं है। इससे अवगत होता है कि षट्खण्डागममें अनुमानको आभिनिवोधिक ज्ञान नहीं माना । इसका कारण यह ज्ञात होता है कि आभिनिबोधिक ज्ञान इन्द्रियव्यापार या मनोव्यापार-पूर्वक उत्पन्न होते हैं। चाक्षुप आदि इन्द्रियज्ञान इन्द्रियव्यापारसे और स्मृति, संज्ञा और चिन्ता ये तीनों अनिन्द्रियज्ञान मनोव्यापारसे पैदा होते हैं । अतः ये ज्ञान तो 'इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्' के अनुसार आभिनिबोधिक हैं । पर अनुमान सीधे मनोव्यापार या इन्द्रिय-व्यापारसे उत्पन्न न होकर साध्याविनाभावी साधनसे उत्पन्न होता है। जैसे धूमसे अग्निका ज्ञान होता है । यह सत्य है कि साधनमें इन्द्रिय और मन सहायक हैं, क्योंकि उनके बिना साधनका दर्शन और व्याप्तिका स्मरण नहीं हो सकता। पर वे साध्यज्ञानके उत्पादक नहीं है-उसका उत्पादक तो अविनाभावि साधनका ज्ञान है । ऐसी स्थितिमें अनुमान आभिनिबोधिक ज्ञान न होकर श्रुतज्ञान होगा, क्योंकि एक अर्थसे दूसरे अर्थ १. धवला ५।५।४३, पृ० २४५ । २. षट्खण्ड० ५१५४४१, पृ० २४४ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy