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________________ द्वितीय परिच्छेद अनुमान-समीक्षा प्रमाणसामान्यके अनुचिन्तन और परोक्ष-भेदोंके दिग्दर्शनके उपरान्त अब हम अनुमानके मूलरूप, उसकी आवश्यकता एवं महत्त्व, उसको परिभाषा और क्षेत्रविस्तारपर विचार प्रस्तुत करेंगे । ( क ) अनुमानका मूलरूप : जैनागमके आलोक में : यह लिखा गया है कि आचार्य गृद्धपिच्छने आगममें वर्णित मति, श्रुत आदि पांच ज्ञानों को दो वर्गों में विभक्त किया है- १. प्रत्यक्ष और २. परोक्ष । मति और श्रुत इन दोको उन्होंने परोक्ष तथा अवधि, मन:पर्यय और केवल इन तीन ज्ञानोंको प्रत्यक्ष प्रमाण बतलाया है । गृद्धपिच्छने यह भी कहा है कि मति ( अवग्रहादिरूप अनुभव )2, स्मृति, संज्ञा ( प्रत्यभिज्ञान ), चिन्ता ( तर्क ) और अभिनिबोध ये पांच ज्ञान इन्द्रियों तथा मनकी सहायतासे उत्पन्न होने के कारण मतिज्ञानके पर्याय हैं । - इनमें आय चार ज्ञान तो अन्य दर्शनों में भी प्रसिद्ध हैं – भले ही उन्हें उन दर्शनोंमें प्रमाण या अप्रमाण माना गया हो । परन्तु 'अभिनिबोध' संज्ञक ज्ञान उन दर्शनोंमें प्राप्त नहीं है तथा चार्वाकके अतिरिक्त शेष सभी दर्शनोंमें स्वीकृत और सबसे अधिक प्रसिद्ध अनुमान उक्त मति आदि पांच ज्ञानोंके मध्य में दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः विचारणीय है कि पुरातन जैन परम्परा में अनुमानको माना गया है या नहीं ? यदि माना गया है तो आ० गृद्धपिच्छने तत्त्वार्थ सूत्र में स्मृति आदि ज्ञानोंका निरूपण करते समय उसका निर्देश क्यों नहीं किया ? इन महत्त्व - पूर्ण प्रश्नोंपर चिन्तन एवं अन्वेषण करनेके उपरान्त जो तथ्य उपलब्ध हुए हैं उन्हें हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं १. गृद्धपिच्छ, त० सू० १।१४ । २. अवग्रेहावायधारणाः । वही, ११५ । ३. तदिद्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । ४. - वही, ११४ । बौद्धादि दर्शनों में अनुभवको तो प्रमाण स्वीकार किया है, पर स्मृत्यादिको अप्रमाण माना है ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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