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________________ ७४ : जैन तकशास्त्रमें अनुमान-विचार स्वरूप युगपत्सर्वभासी तत्त्वज्ञान बतलाकर ऐसे ज्ञानको अक्रमभावो और क्रमशः अल्पपरिच्छेदी ज्ञानको क्रमभावी कहकर प्रमाणको दो भागों में विभक्त किया है। समन्तभद्रके इन दो भेदोंमें जहाँ अक्रमभाजि मात्र केवल है और क्रमभावि मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान अभिमत हैं वहाँ गृद्धपिच्छके प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणभेदोंमें प्रत्यक्ष तो अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान हैं तथा परोक्ष मति और श्रुत ये दो ज्ञान इष्ट हैं । प्रमाणभेदोंकी इन दोनों विचारधाराओंमें वस्तुभूत कोई अन्तर नहीं है । गृद्धपिच्छका निरूपण जहाँ ज्ञानकारणोंकी सापेक्षता और निरपेक्षतापर आधृत है वहाँ समन्तभद्रका प्रतिपादन विषयाधिगमके क्रम और अक्रमपर निर्भर है। पदार्थों-ज्ञेयोंका क्रमसे होनेवाला ज्ञान क्रमभावि और युगपत् होने वाला अक्रमभावि प्रमाण है । पर इस विभागको अपेक्षा गृद्धपिच्छका प्रमाणद्वय विभाग अधिक प्रसिद्ध और तार्किकों द्वारा अनुसत हुआ है। ( च ) परोक्ष-प्रमाणका दिग्दर्शन : प्रमाणके प्रथम भेद प्रत्यक्षके स्वरूप और उसके भेद-प्रभेदोंको यहाँ चर्चा न कर प्रकृत अनुमानसे सम्बद्ध उसके दूसरे भेद परोक्षकी परिभाषा और उसके भेदों पर संक्षेपमें प्रकाश डाला जाता है। पूज्यपादने परोक्षकी परिभाषा निम्न प्रकार प्रस्तुत की है पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्यनिमित्तं प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो मतिश्रुतं उत्पद्यमानं परोक्षमित्याख्यायते'। 'परोक्ष' पदमें स्थित 'पर' शब्दसे आत्मातिरिक्त इन्द्रियों, मन तथा प्रकाश और उपदेश आदि बाह्य निमित्तोंका ग्रहण विवक्षित है। उनकी सहायता तथा मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम ( ईषद् अभाव )की अपेक्षासे आत्मामें जो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं वे परोक्ष कहे जाते हैं । तात्पर्य यह कि पराधीन ज्ञानोंको परोक्ष' कहते हैं । इस परिभाषाके अनुसार इन्द्रियजन्य और मनोजन्य ज्ञान, जिन्हें इतरदर्शनोंमें इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्ष कहा गया है, परोक्ष हैं। स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और आगम ये ज्ञान भी परसापेक्ष होनेसे परोक्ष में परिगणित हैं। परसापेक्ष १. स. सि० ११११, पृ० १०१ । २. कुतोऽस्य परोक्षत्वम् ? परायतत्वात् । -वहो, १।११, पृ० १०१ । ३. तच्चतुर्विधम् । इन्द्रियज्ञानम् । स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणेन्द्रियशानेन समनन्तर प्रत्ययेन जनितं तन्मनोविज्ञानम् । -धर्मकीर्ति, न्या. बि० प्र० परि० पृष्ठ १२,१३ । ४. पंचविधस्याप्यस्य परोक्षस्य प्रत्ययान्तरसापेक्षत्वेनैवोत्पत्तिः । -धर्मभूषण, न्या. दो० ५० ५३ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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