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________________ जैन प्रमाणवाद और उसमें अनुमानका स्थान : ०३ द्वय प्रत्यक्ष और अनुमानरूप है और अनुमानमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्कका समावेश सम्भव नहीं है । अतः आ० गृद्ध पिच्छने उसे स्वीकार न कर प्रत्यक्ष और परोक्षरूप प्रमाणद्वयका व्यापक विभाग प्रतिष्ठित किया। उत्तरवर्ती जैन ताकिकों के लिए उनका यह विभाग आधार सिद्ध हुआ। प्रायः सभीने अपनी कृतियोंमें उसीके अनुसार ज्ञानमीमांसा और प्रमाणमीमांसा उपस्थित की है। पूज्यपादने न्यायदर्शन आदि दर्शनोंमें पृथक प्रमाणके रूपमें स्वीकृत उपमान, अर्थापत्ति और आगम आदि प्रमाणोंको परसापेक्ष होनेसे परोक्ष में अन्तर्भाव किया और तत्त्वार्थसूत्रकारके प्रमाणद्वयका समर्थन किया है। अकलंकने भी इस प्रमाणद्वयकी सम्पुष्टि की, साथ ही नये आलोकमें प्रत्यक्ष-परोक्षकी परिभाषाओं और उनके भेदोंका भी बहुत स्पष्टताके साथ प्रतिपादन किया है। परोक्षको स्पष्ट संख्या हमें सर्वप्रथम उनके ग्रन्थों में ही उपलब्ध होती है और प्रत्येकके लक्षण भी वहीं मिलते हैं। लगता है कि गृद्धपिच्छ और अकलंकने जो प्रमाण-निरूपणको दिशा प्रदर्शित की उसीपर उत्तरवर्ती जैन तार्किक चले हैं। विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि", हेमचन्द्र और धर्मभूषण' प्रभृति तार्किकोंने उनका अनुगमन किया और उनके कथनको पल्लवित किया है। स्मरणीय है कि आ० गृद्ध पिच्छके इस प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणद्वय विभागसे कुछ भिन्न प्रमाणद्वयका प्रतिपादन भी हमें जैन दर्शनमें उपलब्ध होता है। वह प्रतिपादन है स्वामी समन्तभद्रका । स्वामी समन्तभद्रने प्रमाण ( केवलज्ञान )का १. अत उपमानागमादीनामत्रैवान्तर्भावः । -पूज्यपाद, स० सि० ११११ । २. प्रत्यक्षं विशदं शानं मुख्यसंव्यवहारतः । परोक्षं शेषविज्ञानं प्रमाणे इति संग्रहः । -अकलंक, लघीय० १।३। शानस्यैव विशदनिर्भासिनः प्रत्यक्षत्वम्, इतरस्य परोक्षता । -लघीय० स्वो० वृ० १३ । ३. शानमाद्यं मतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिवाधिकम् । प्राड् नामयोजनात् शेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् ॥ -लघोय० ११११, तथा ३।६१ । ४. विद्यानन्द, प्र० प०, पृ० ६६ । ५. माणिक्यनन्दि, प० गु० १११, २ तथा ३१, २ । ६. प्र. मी० १११११, १० तथा १।२।१,२ । ७. न्या. दो० प्रत्यक्ष प्रकाश, पृ० २३ तथा परोक्षप्रकाश पृ० ५३ । ८. तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यशानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥ -समन्तभद्र, आ० मी० का० १०१। १०
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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