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________________ जैन सुबोध गुटका। (४) NAAN aanawarwwwwwwww wwwwnnamruaamannaahaa जिन्दगानी जी, यह चौथमल का कहना ॥ ५ ॥ ___७३ सत्संग की महिमा. (तर्ज या हसीना बल मदीना, करबला में तू न जा) लाखों पापी तिरगए सत्संग के परताप से । छिन में बेडा पार हो, सत्संग के परताप से ॥ टेर ॥ सत्संग का दरिया भरा. कोई न्हाले इसमें आन के । कटजाय तन के पाप सब; सत्संग के परताप से ॥ लाखों ॥१॥ लोह का सुवर्ण बने, पारस के परसंग से । लट की भंवरी होती है, सत्संग के परताप से ॥२॥ राजा परदेशी हुआ, कर खून में रहते भरे । उपदेश सुन ज्ञानी हुआ, सत्संग के परताप से ॥३॥ संयति राजा शिकारी, हिरन के मारा था वीर | राज्य तज साधु हुआ, सत्संग के परताप से ॥ ४॥ अर्जुन मालाकार ने, मनुष्य की हत्या करी। छ: मास में मुक्ति गया, सत्संग के परताप से ।। ५ ॥ एलायची एक चोर था श्रेणिक नामा भूपति । कार्य सिद्ध उनका हुआ, सत्संग के परताप से ॥ ६॥ सत्संग की महिमा बड़ी है, दीन दुनियाँ बीच में। चौथमल कहे हो भला, सत्संग के परताप से ॥७॥ ७४ कतकर्म फलाफल. (तर्ज-विना रघुनाथ के देखे) . शुभाशुभ जो किया तुमने वही अब पेश आते हैं। कभी नीचा दिखाते हैं, कभी ऊंचा बनाते हैं । टेर ॥ आश्रय हिंसा असत्य चोरी; भोग ममत्व में राचे । कमें बंधन यही कारण, गुरू
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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