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________________ जैन सुबोध गुटका ३४२ मन शुद्धि. ( तर्ज़ - वनजारा ) 1 क्यों पानी में मल मल व्हावे । नहीं मन का मैल भंडारा । नित करते हैं नव २ कहांवे ॥ नहीं० ॥ १ ॥ होगा निस्ताराजी : क्यों नहीं तजा क्रोध अहंकारा, कैसे इधर उधर भटकावे |! नहीं० ॥ २ ॥ ज्ञान रूप हैं निर्मल पानी । इस में लगाले गोवा प्रानीजी । शुद्ध क्षण में तूं हो जावे || नहीं ० || ३ || कहे चौथमल हितकारी । प्रभु सुम रन कर हो पारीजी । नहीं आवागमन में श्रावे ॥ नहीं ॥४॥ ( २४६ ) [नटावे ||टेर || तन मल मूत्र का द्वाराजी । हाड़ मांस का थैला " · : ३४३ पति को उपदेश .. ( तर्ज- अनोखा कुंवरजी हो साहिया झालो दूं घर श्राय ): : अर्ज म्हारी सांभलो हो· साहिया ! मंत निरखों पर नार || टेर || सोना रूपा मिट्टी तथा हो साहिबा, पाले दूध भराय । रूप तणों तो फर है, हो साहिबा, भेद स्वाद में नांय ॥ श्ररज० ॥ १ ॥ धन घटे योवन हटे हो साहिबा, तन से होय खराब | दण्ड भरे फिर रावले हो साहिबा, रहे कैसे मुख आव | अरज ० || २ || दंभ करे निजं कंथ से, हो साहिबा, सो थारी किम होय । चोर कर्म दुनियां कहे हो साहिबा, प्राण देवोगा खोय || ३ || रावण पद्मोत्तर
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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