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________________ (२२०) जैन सुबोध गुटका । जिकर ही नहीं। आगे का सामां विना ए दिला ! तेरा होने का हरगिज गुजर ही नहीं ॥टेर ॥ मैंने लाखों का माल कमाय लिया, मैंने बाग में महल झुकाय दिया। मैंने क्रोड़पति घर व्याह किया, मेरे जैसा जहां में वशर ही नहीं ॥ यांही० ॥ १ ॥ मने पासा सजा है यह गुल बदन, मैं तो देखुं जिसदम ले दरपन । मेरा दिल होजाता है भरके चसन, मेर सामने तू किस कदर ही नहीं। याही।। ॥ २ ॥ मैं जो कुछ कहूं मेरा माने वचन, मेरे कितने ही न्याती और कितने सजन । मैं आलिम मैं फाजिल में जानूं हरफन, मेरे बिन किसकी होती कदर ही नहीं ॥ यांहीं ॥३॥ वहादुर हाकिम मैं राजा सही । मेरे 'धन है जितना किसी के नहीं। मैंने जीते हैं जहां तहा युद्ध कई, मेरा जता निशाना टल ही नहीं। यही॥ ॥ ४ ॥ ए गाफिल तू गफलत में सोता पड़ा, खाली घातों में लो क्या हेगा धरा । तेने अपना फरज अदा न किया चौथमल कहे वहां चाची का घर ही नहीं ।। यहां ॥ ५॥ ३१० मत्सरता त्याज्य. (तर्ज-पंजी मुंडे बोल) दूर हटाओ जी २ मत्सरता दिल से जो सुख चाहो जी।। टेर ॥ मत्सरता कर आपस में, मत वैर विरोध
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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