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________________ . (.१४२) जैन सुबोध गुटका । खालीरे ॥ मत० ॥ १ ॥ मन मोती टूटी जावे, नहीं. जुड़ता लीजो सम्भालीरे ॥ २॥ दी गाली द्रोपदी रानी, फिर दुष्ट दुशासन झालीरे ॥ ३ ॥ दी चौथमल या शिक्षा, थे चालो उत्तम चालीरे ॥ ४॥ . २१८ सत्यादर्श.. (तर्ज-मांड) सत्य.कठिन करारी, ले कुन धारी, हरिश्चन्द्र टारी जी राज, हो सत्यधारी साहब, जननी थारी, थां उजवारी जी राज ॥ टेर ।। ऊभी तारा वाजार मेरे, देखे लोग. अपार । हरिश्चन्द्र कहे सव सांभलोरे, गिरवे मेलुं नार ।। सत्य० ॥ ॥१॥ लोग देख श्राश्चर्य कियोरे, दीसे राज कुमार । • मुख लूखो भूखो सहीरे, इण में दुख अपार ॥२॥. वस्तु बिके बाजार मेरे, नार विके नहीं कोय । घर धणी राजी - हाथसु सरे, यह भी आश्चर्य होय ॥३॥ हद बातां लोक मेरे नहीं सुनी किसी के पास । हरिश्चन्द्रं सोची वांतने, दिलमें हुए उदास ॥४॥ कौन देश का राजवी, कौन पूछे मम सार । काशी नगर के चौवटे, म्हारी विके तारा दे नार ॥५॥ तारा कहे कन्था ;सुनो, पड़ी आज आ : भीड़ । सामों सामी देखतारे नैना खलक्या नीर ॥ ६ ॥ हीरा पन्ना या पहनती, मणी मोत्यों का हार ! अब पहिनने
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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