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________________ जैन सुबोध गुटका | ( १०६ ) चतुर्दश रत्न के धारी । लक्षवाण वे सहस्र थी नारी । सो दीपक ज्यूं बुझाता है ॥ १४ ॥ पूनम पूर्ण करणी तो करले । भवसिन्धु से जल्दी तिरले । यूं चौथमल जितलाता है ॥ १५ ॥ शहर जोधपुर है सुलतान | श्रावक लोग वसे गुणवान् । सतत्तर कार्तिक में गाता है ॥ १६ ॥ १६८ जमाने की खूबी. (तर्ज-ना रघुनाथ के देखे नहीं दिलको करारी है) उलट चलने लगी दुनियां, न्याय को कौन धरता है । अगर सच्ची कहे किससे तो वह उलटी समझता है ॥ टेर ॥ सखी बखील बन बैठा, अजीज दुश्मन भये सारे । अरे ! धर्मी वने पापी, गीदड़ से शेर डरता है ॥ उलट० ॥ १ ॥ ब्रह्मचारी अनाचारी, त्रिया खाविंद को दे गाली । वह से सास भी डरती चाप से पुत्र लड़ता है ॥ २ ॥ उंच ने नीच कृत धारा, नीच जपता है नित माला | सच्चे बोलते हैं भूँट, नेक बदी में फिरता है ॥ ३ ॥ होके कुलवान की नारी, करे पर पुरुष से यारी । योगी भोग चाहता है, ब्रह्म निज कर्म छती है ॥ ४ ॥ देखते २ दुनियां, पलटती ही चली जाती। चौथमल वीर जो भजता, वही संसार तिरता है ॥ ५ ॥ १६६ झगड़े का मूल. ( तर्ज - आखिर नार पराई है ) तीनों की फक्त लड़ाई है। ज़र जोरू जमीन जग मांई है ॥ टेर ॥ चेड़ा और कौणक महाराज | लढ़े हार हाथी के काज वाई पद्मा ने आग लगाई है । तीनों० | १ | सीता के लिए
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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