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________________ (१०८) जैन सुवोध गुटका। दिया उपदेश जीवों को, दया की नाव से तरता ॥ ५॥ . १६७ तिथि शिक्षा. (तर्ज-अाखिर नार पराई है) काल पकड़ ले जाता है, तू क्यों इतना अकढ़ाता है ॥टेर ॥ एकम एक उमर घट जावे। गया वख्त पीछा नहीं आवे । वृथा जन्म यह जाता है क्यों० ॥१॥ वीज वीजली का भलकारा । तन धन यौवन समझो सारा । झंडा जगत का नाता है ॥२॥ तीज त्योहार कामी मन भावे । विषय भोग में वह ललचावे । ज्यूं मिट्टी में कीट लिपटाता है ॥३॥ चौथ चार गतिका फेरा ।किया जीव अनन्ती वेरा । ल्यूं संतुष्ट नृप नहीं पाता है ॥४॥ पंचम पंच अग्रसर होय, कुरिवाज नहीं मेटे सोय । वह कैसा बड़ा कहलाता है ॥५॥ छट छकियो जवानी मांई । ताके तू तो नार पराई । जरा खौफ नहीं लाता है ॥ ६॥ सातम साथ तू खर्ची लीजे। 'मिला योग खाली मत रहिजे । एक धर्म साथ में आता है ॥७॥ आठम फंसा तू आठों पाहर । धन्धा करे तेज और मोहर। लोभी नर दुख पाता है ॥८॥ नम से नरक दुख है भारी। पापी की वहां जाय सवारी । मार मुद्गर की खाता है ॥६॥ दशम कहे दश उसके शिर । ऐसा रावण था शूरवीर । वह वादल ज्यू विरलाता है ॥ १०॥ ग्यारस के दिन सुन ले ज्ञान । कर तपस्या भजले भगवान । जो मुक्ति तू चाहता है॥ ११ ॥ वारस कहे वात ले मान । मत पीजो पानी अनछान । क्यों नाहक जीव सताता है ॥ १२ ॥ तेरस तेरी उलटी वुद्धि । करे फाटका रख्ने न सुधी। साहूकार पछताता है ॥ १३ ॥ चौदस
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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