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________________ (१०४) जन सुवोध गुटका । खोटो चालो । पुण्य विना नहीं मिले सम्पदा, क्यों थे घाटो घालो ॥३॥ एक श्रांक भाजावे श्रवके, स्वर्ण का गहना घड़ा दूं। नख से शिखा तलक पहिना के, पीली जर्द बना दूं ॥४॥ सट्टा में टोटों लग जाने, घर तिरिया पे श्रावे । गहनो देदे थारो प्यारी, तो इज्जत रह जावे ॥ ५॥ मना किया था थाने पहिला, थां म्हारी नहीं मानी । जो मागगहना लेवो तो, करूं प्राण की हानी ॥ ६॥ जहर खाकर कई मर जावे, कई फांसी को खावे । लेणायत दे गाली मुख से, कैसा कष्ट उठावे ॥७॥ गुरु प्रसादे चौथमल कहे, छोड़ोयोटा धंधा । समता रूप अमृत रस पीने, भजन करोरे वंदा ।। ८॥ १६१ हित योजना. (तर्ज-आखिर नार पराई है) सत्य शिक्षा सुनता नाहीं है, क्यों थे श्रफल गमाई है ॥टेर ॥ फागण में गाली गावे है। नित वैश्या के घर जावे है। लाज शर्म विसराई है। क्यों०॥१॥ मुख उपर वर्षे है. नूर । यौवन बीच छकियो भरपूर । ताके नार पराई है ॥२॥ साथी संग भांगा गटकावे, करे गोठ और माल उड़ावे । यह कैसी कुमति छाई है ॥ ३ ॥ सत्संग तो लागे है खारी । पापकरण में है होशियारी । धर्मी की करे बुराई है ॥ ४॥ लख चौरासी का मिजमान, अब तो तू भजले भगवान, यह ढाल चौथमल गाई है ॥ ५॥ १६२ दया ही मोक्षद्वार, (तर्ज-बिना रघुनाथ के देखे नहीं दिल को करारी है.) .. दया के विदुन ऐ.वादर ! भी नहीं मोक्ष पाश्रोगें। हजा
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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