SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २-न्य गुण पर्याय २-द्रव्याधिकार समर्थ हैं। १३४. अन्य द्रव्यों की स्थिति में सहाई मानें तो? । नहीं, क्योंकि वे त्रिकाल स्थित हैं, गमन पूर्वक स्थिति नहीं करते । जो नया उत्पन्न हो उसे कार्य कहते हैं। नई स्थिति उत्पन्न न होने से वह उनका कार्य नहीं स्वभाव है और स्वभाव में किसी की सहायता नहीं हुआ करती । १३५. द्रव्य के आकार निर्माण में अधर्म द्रव्य का क्या स्थान है ? द्रव्य के प्रदेशों का मुड़ना उसके निमित्त से होता है, क्योंकि गमनशील प्रदेश बिना रुके मुड़ नहीं सकते, और उनके मुड़े बिना तिकोन चौकोर आदि आकार नहीं बन सकते। १३६. अधर्म द्रव्य और किस किस प्रकार सहाई होता है ? चलते हुए जीव व पुद्गल को मुड़ने में सहाई होता है, क्योंकि बिना रुके मुड़ना हो नहीं सकता। १३७. अधर्म का अर्थ पाप करें तो ? अन्यत्र इसका पाप अर्थ में भी प्रयोग किया गया है, पर यहां द्रव्य अधिकार में यह एक विशेष जाति के द्रव्य का नाम है। १३८. अधर्म द्रव्य कितना बड़ा है और उसका आकार क्या है ? लोकाकाश जितना ही बड़ा है और उसी आकार का है। (१३९) अधर्म द्रव्य खण्ड रूप है किंवा अखण्ड रूप और उसकी स्थिति कहां है ? अधर्म द्रव्य एक अखण्ड द्रव्य है और समस्त लोकाकाश में व्याप्त है। १४०. अधर्म द्रव्य को लोक व्यापक क्यों माना गया है ? चलते चलते जीव व पुद्गल लोक के किसी भी प्रदेश पर ठहर सकते हैं। १४१. धर्म व अधर्म द्रव्यों में कौन छोटा है ? दोनों लोकाकाश प्रमाण हैं । कोई छोटा बड़ा नहीं। १४२. अधर्म द्रव्य की सिद्धि कैसे होती है ? .::
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy