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________________ -नय-प्रमाण ३५५ ३-नय अधिकार १३१. किसी व्यक्ति को व्यवहार ज्ञान आदिक न हों और निश्चय शान आदिक हों वहां अविनाभाव कैसे घटे ? ऐसा होना असम्भव है कि व्यवहार ज्ञान चारित्र व्रत आदि न हों और निश्चय रूप सब कृछ हो। अतः इस प्रश्न को अव काश नहीं । १३२. चौथे से सातवें गुणस्थान तक निश्चय व्रत चारित्रादि रूप समाधि नहीं होती पर व्यवहार व्रतादि व सम्यक् रत्नत्रय तो होता है ? तहां रत्नत्रय आंशिक रूप से पाया जाता है, पूर्ण रूप से नहीं। कथन सर्वत्र पूर्ण भावों का किया जाता है, आँशिक भावों का नहीं । अतः अपनी बुद्धि से व्यवहार व निश्चय वाले अंशों का ग्रहण करके उनमें परस्पर अविनाभाव समझ लेना। १३३. आंशिक भावों को समझाने समझने के लिये किस नय का प्रयोग किया जाता है ? एक देश शुद्ध निश्चय नय का कथन आगममें आता है, वह निश्चय रूप अंश के प्रति ही प्रयुक्त हुआ है। और उपलक्षण से अपनी बुद्धि द्वारा एक देश अशुद्ध निश्चय नयका तथा योग्य व्यवहार नयों का प्रयोग करके ऐसे आंशिक या मिश्रित भावों का निर्णय करना चाहिये। प्रश्नावली १. नय किसे कहते हैं ? २. नय ज्ञान का क्या प्रयोजन है ? ३, नय के कितने भेद प्रभेद हैं ? ४. जो जाना जाय सो ज्ञाननय है और जो लिखा सो शब्द नय? ५. नैगमावि चार और शब्दादि तीन ये सातों ही शब्द द्वारा व्यक्त की जाती हैं; फिर शब्दादि तीन को हो पृथक से व्यञ्जन नय बताने की क्या आवश्यकता?
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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