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________________ ३५३ -नय-प्रमाण ३-नय अधिकार समझना समझाना अथवा साक्षात प्राप्त करना अशक्य होने से साधक को अपनी प्रारम्भिक भूमिकाओं में जानबूझकर कायक्लेश आदि उपसर्गों व परीषहों का आव्हानन करना पड़ता ही है; क्योंकि ऐसा करने से ही उसमें आत्मबल जागृत होता है, और क्रमपूर्वक आगे जाकर उसको वह आमप्रताप भी साक्षात हो जाता है । यहां भी व्यवहार तप साधन है और निश्चयतप साध्य है। वहां पूर्ववत यथायोग्य सद्भूत व असद्भूत दोनों प्रकार का साधन साध्य भाव समझना। वस्तुस्वरूप में अविनाभाव दर्शाकर समन्वय करो। सामान्य विशेष के बिना नहीं रहता है और विशेष सामान्य के बिना नहीं रहता । इसलिये अभेद प्रतिपादक निश्चय स्वरूप तथा भेद प्रतिपादक व्यवहार स्वरूप में परस्पर अविनाभाव १२३. १२४. रत्नत्रय में अविनाभाव दर्शाकर समन्वय करो। सम्यग्दर्शन आदिक तीनों में ओतप्रोत आत्मा उन भेदों के बिना नहीं रहता और वे भेद भी अपने आश्रयभूत आत्मा के बिना नहीं रहते । इसलिये अभेद प्रतिपादक निश्चय रत्नत्रय तथा भेद प्रतिपादक व्यवहार रत्नत्रय में परस्पर अविनाभाव सम्यग्दर्शन में अविनाभाव दर्शाकर समन्वय करो। सात तत्वों में अनुस्यूत त्रिकाली अखण्ड आत्मा उन सातों के बिना नहीं रहता और वे सातों भी अपने आश्रयभूत उस आत्मा के बिना नहीं रहते । इसलिये अभेद प्रतिपादक निश्चय सम्यग्दर्शन व भेद प्रतिपादक व्यवहार सम्यग्दर्शन में परस्पर अविनाभाव है। सम्यग्ज्ञान में अविनाभाव दर्शाकर समन्वय करो। पर पदार्थों से व्यावृत या पृथक ही आत्मा के स्वरूप का स्वसंवेदन-गम्य लाभ होता है और वह स्वसंवेदन-गम्य लाभ ही १२६.
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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