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________________ ६-तत्वार्थ २८४ २-रत्नत्रयाधिकार (४. सम्यग्चारित्र) ७०. सम्यग्चारित्र किसको कहते हैं ? शुद्धात्मा की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति या व्यापार करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं। ७१. प्रवृत्ति या व्यापार से क्या समझे ? मन वचन व काय की क्रियाओं को प्रवृत्ति या व्यापार कहते ७२. सम्यग्चारित्र कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का व्यवहार व निश्चय । ७३. व्यवहार सम्यक्चारित्र किसको कहते हैं ? अशुभ प्रवृत्ति से हटकर शुभ प्रवृत्ति करना व्यवहार चारित्र ७४. अशुभ प्रवृत्ति किसको कहते हैं ? हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह संचय आदि पाप तथा क्रोधादि कषाय सब अशुभ प्रवृत्ति है । ७५. शुभ प्रवृत्ति किसको कहते हैं ? व्रत, शील, संयमादि धारण करना, सत्य बोलना, दया दान सेवा करना, सच्चे देव शास्त्र गुरु की विनय भक्ति पूजा आदि करना शुभ है। ७६. निश्चय चारित्र किसको कहते है ? बाह्य क्रिया अर्थात पापों के निरोध से अथवा अभ्यन्तर क्रिया अर्थात योग व कषायों के निरोध से आविर्भूत आत्मा की शुद्धि विशेष निश्चय चारित्र है । इसी को साम्यता, माध्यस्थता व वीतरागता कहते हैं । अथवा शुद्धात्मध्यान में रत रहना निश्चय चारित्र है। ७७. शुद्धात्मा के ध्यान से क्या होता है ? निराकुलता होती है और वही स्वाभाविक आनन्द है।
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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