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________________ ६- तत्वार्थ २८२ २ - रत्नत्रयाधिकार ५४. जो वस्तु जानी जा चुकी है उसी को श्रद्धा की जाती है, इसलिए सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन होना चाहिये । यह बात ठीक है कि सम्यग्दर्शन से पहिले सात तत्वों का ज्ञान होना आवश्यक है, परन्तु वह ज्ञान उस समय तक सम्यक् विशेषण को प्राप्त नहीं होता जब तक कि सम्यग्दर्शन न हो जाये । इसीलिये उनकी उत्पत्ति युगपत बताई है । 1 ५५. सम्यग्ज्ञान कितने प्रकार का होता है ? दो प्रकार का - व्यवहार व निश्चय । ५६. व्यवहार सम्यग्ज्ञान किसको कहते हैं ? शास्त्रों के शाब्दिक ज्ञान को द्रव्य या व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहते हैं । ५७. निश्चय सम्यग्ज्ञान किसको कहते हैं ? शास्त्रों के वाच्य उस रहस्यात्मक शुद्धात्म तत्व का साक्षात ज्ञान हो जाना भाव या निश्चय सम्यग्ज्ञान है । ५८. व्यवहार व निश्चय सम्यग्ज्ञान का समन्वय करो । प्रतिपादन की अपेक्षा ही दोनों में भेद है, स्वरूप की अपेक्षा नहीं । शास्त्र का आश्रय लेकर कहा गया है इसलिये व्यवहार और वाच्यभूत पदार्थाकार ज्ञान को ही ज्ञान कहा गया है इसलिये निश्चय है | ५६. दोनों में सच्चा कौन ? वास्तव में निश्चय ज्ञान ही सच्चा है, क्योंकि व्यवहार ज्ञान तो शाब्दिक है । ६०. फिर व्यवहार को ज्ञान क्यों कहा ? बिना व्यवहार ज्ञान के अर्थात बिना शास्त्र पढ़े सुने निश्चय भावात्मक ज्ञान सम्भव नहीं, इसलिये व्यवहार ज्ञान साधन है और निश्चय साध्य । ६१. शास्त्र ज्ञान प्राप्त करने का क्या उपाय ? सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों का पालन करने से शास्त्र ज्ञान सुलभ हो जाता है ।
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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